Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

जैसा दोगे, वैसा ही पाओगे

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
स्वामी विवेकानंदजी जयंती, राष्ट्रीय युवा दिवस : 12 जनवरी
यह सारा जगत ध्वनि और प्रतिध्वनि से जुड़ा है । हमारी जैसी ध्वनि होती है वैसी प्रतिध्वनि आती है । तुमने देखा होगा कि किसी खाली मकान के करीब आप जैसी आवाज बोलते हो वहाँ से वैसी ही ध्वनि आती है । आप बोलोगे : ‘तू सज्जन है’ तो वहाँ से आयेगा कि ‘तू सज्जन है’, बोलोगे : ‘तू लुच्चा है’ तो वहाँ से आयेगा : ‘तू लुच्चा है’... ऐसे ही हम एक-दूसरे के प्रति जैसी भावनाएँ करते हैं वैसा ही प्रतिफल प्राप्त होता है ।
स्वामी विवेकानंदजी ने ईश्वरप्राप्ति के लिए खूब इधर-उधर यात्राएँ कीं । वे परिव्राजक हो गये थे । एक दिन घूमते-घामते संध्या हो गयी, उनके मन में एक बड़ा तूफान उठा कि ‘मैं इतना बड़ा हो गया, ध्रुव को 5 वर्ष में, प्रह्लाद को 11 वर्ष की उम्र में, राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते परमात्मा का साक्षात्कार हुआ और मैं परिव्राजक - संन्यासी हुआ और अभी तक मुझे अपने हृदय में छुपे हुए अंतर्यामी का साक्षात्कार नहीं हुआ, अभी तक भगवान का दर्शन नहीं हुआ ! व्यर्थ का खाना, व्यर्थ के कपड़े पहनना, व्यर्थ ही समाज पर बोझरूप होना है । धिक्कार है मेरे साधु होने को ! धिक्कार है मेरे जीने को !!’ उन्हें अपने पर खूब ग्लानि हुई ।
सूर्यनारायण अस्ताचल को जा रहे थे । सामने एक निर्जन जंगल था, उसमें घुस गये । चित्त की बड़ी विचित्र दशा थी : ‘इससे तो मरना अच्छा है । हृदय में परमात्मा छुपा है और आज तक उसकी मुलाकात नहीं हुई !
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
‘ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय-देश में साक्षीरूप से स्थित है ।’   (गीता : 18.61)
यह भगवान का वचन मिथ्या नहीं हो सकता है लेकिन मेरी तड़प नहीं है, मुझे उत्कंठा नहीं है । ईश्वर के लिए उत्कंठा नहीं है तो मन संसार के लिए उत्कंठा करेगा और जन्म-मरण में पड़ेगा । संसार के जन्म-मरण में जाना पड़े उसके पहले मैं इस शरीर को ही मार देता हूँ । यह शरीर न रहे तो अच्छा है !’ ऐसा सोच के जंगल में गये । चलते गये... सामने से एक बाघ आया ।
विवेकानंदजी के मन में हुआ कि ‘प्रभु ने यह ठीक किया । बाघ भूखा है, इसका पेट भर जायेगा । मैं भी भूखा हूँ परंतु मेरी भूख तो प्रभुप्राप्ति से मिटेगी, इस देह की भूख अन्न से मिटेगी । मेरा अन्न मेरे पास नहीं परंतु इसका अन्न तो इसके पास है । यह परितृप्त हो जाय तो कोई हानि नहीं क्योंकि इसमें भी तो मेरा प्रभु है ।’ ऐसा सोचकर बाघ के करीब जा के खड़े हो गये तो बाघ ने पगडंडी बदल दी, दूसरा रास्ता ले लिया ।
हम बाघ का कल्याण सोचते हैं तो बाघ हमारा अकल्याण कैसे सोच सकता है ! जब पशु पर हमारे शुभ संकल्प वहाँ से प्रतिसंकल्प शुभ लाते हैं तो किसी व्यक्ति के प्रति यदि शुभ संकल्प है तो वह व्यक्ति शुभ संकल्प दिये बिना कैसे रह जायेगा !
REF: ISSUE348-DECEMBER_2021