Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

...फिर गीता समझ में आ जाती है

- पूज्य संत श्री आशाारामजी बापू
अनपढ़ होकर भी गीता समझी
एक बूढ़ा काका गंगा-किनारे गीता पढ़े जा रहा था । निमाई पंडित (गौरांग) वहाँ से पसार हुए । उन्होंने देखा कि वह काका ‘ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...’ कर रहा है, गीता का कोई श्लोक उच्चारित तो नहीं करता पर रोमांचित हो रहा है - शांत, मौन, आनंदित हो रहा है । वे पास गये और पीछे खड़े हो गये । देखा कि पन्ना तो नहीं उलटता लेकिन ‘ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...’ करते हुए बड़े आनंद से पढ़ रहा है ।
गीता पढ़ के रखी तो निमाई पंडित ने पूछा : ‘‘आप संस्कृत पढ़े हैं ?’’
काका ने कहा : ‘‘संस्कृत का एक अक्षर भी नहीं जानता ।’’
‘‘गीता तो पूरी संस्कृत में है फिर आप क्या पढ़ रहे थे ?’’
‘‘मैंने सुना है कि अर्जुन विषाद में डूब गया था । अर्जुन को भगवान ने उपदेश देकर उसका विषाद दूर किया । तो यह गीता विषादनाशिनी है, विषाद दूर करके अपने आत्मा में बिठानेवाली है । ‘ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...’ करता हूँ, मुझे आनंद आता है, बाकी इसमें क्या लिखा है यह मैं नहीं समझता हूँ ।’’
गौरांग ने कहा : ‘‘हम तो निमाई पंडित हुए, शास्त्रार्थ करके दूसरों को परास्त किया और कुछ विशेष बने परंतु गीता तो आपने ही पढ़ी है भैया ! हमने नहीं पढ़ी ।’’
ऐसे ही कई लोग भागवत, रामायण की कथा तो करते हैं पर भागवत को, रामायण को जानते कहाँ हैं ? चौपाइयाँ जानते हैं, श्लोक जानते हैं, उनके लक्ष्यार्थ को नहीं जानते ।
‘अब शांति पाने के लिए गीता पढ़ो’
घाटवाले बाबा के पास कोई प्रोफेसर आया, बोला : ‘‘महाराज ! आपका नाम सुनकर बहुत दूर से मैं आया हूँ । मुझे कुछ शांति मिले ऐसा कोई उपाय बताइये ।’’
बाबा ने सिर से पैर तक निहारा, बोले : ‘‘अच्छा, तुम गीता पढ़ना ।’’
यह सुन के वह चौंककर बोला : ‘‘बाबा ! गीता !... गीता तो मैं विद्यार्थियों को पढ़ाता हूँ । मैं महाविद्यालय में प्रोफेसर हूँ । गीता मैं कई बार पढ़ चुका हूँ । उस पर मेरी पूरी पकड़ है । उसमें 700 श्लोक हैं, कई श्लोक मुझे कंठस्थ हैं ।’’
बाबा : ‘‘आज तक तुमने पैसे कमाने के लिए गीता पढ़ी है, अब शांति पाने के लिए पढ़ो ।’’
पुरस्कार पाकर भी गीता से अनभिज्ञ
रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिला था ।
एक दिन शाम का समय था, वे बड़ी मस्ती में जा रहे थे । पड़ोस में एक बूढ़ा चबूतरे पर बैठा था । रवीन्द्रनाथ ने उससे कहा : ‘‘मैंने ‘गीतांजलि’ लिखी है, उस पर मुझे नोबेल पुरस्कार मिला है !’’
बूढ़े ने निहारा, बोला : ‘‘अरे, तू गीता को जानता है, ईश्वर को जानता है ?’’
‘‘गीता को जानता है... ! मेरे दार्शनिक चिंतन पर आधारित गीतों के संग्रह के लिए तो मुझे नोबेल पुरस्कार मिला है !’’
‘‘नोबेल पुरस्कार पा लिया तो क्या बड़ी बात की ! गीता को, ईश्वर को तो तू जानता नहीं !’’
टैगोर लिखते हैं कि ‘उस बूढ़े व्यक्ति ने मेरे (मान-बड़ाई, अहं के) नशे को चकनाचूर कर दिया । लगा कि कहाँ इसके दर्शन हुए !... इतने लोग वाहवाही कर रहे थे, इतना यश हो रहा था, बड़े-बड़े वाइसरायों के द्वारा सम्मानित हो रहा था और उस बूढ़े व्यक्ति ने कुछ गहरी आवाज से कहा कि ‘अरे, दार्शनिक गीतों को लिखना जानता है परंतु क्या तू गीता जानता है ?... गीता को तो जानता नहीं, दार्शनिक साहित्य क्या लिखा !’
सिर चकराने लगा, उसके शब्दों में गहरी चोट थी । सोचा, ‘उसके पास जाना उचित नहीं था, वहाँ रुकना उचित नहीं था... पर अब ये शब्द दिमाग से निकलें कैसे ? सोऊँ तो मजे की नींद न आये ।’
उस अनपढ़ वयोवृद्ध ब्रह्मवेत्ता ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के रोम-रोम को झकझोर दिया । रात को नींद नहीं आयी । सुबह मन जरा उदास था, उदासी को मिटाने के लिए प्राकृतिक वातावरण में घूमने निकल पड़े । सूर्योदय हुआ, ऊषा-काल की किरणें मिलीं ।
 सुबह के समय बुद्धि का भी कुछ विशेष विकास होता है, हवामान में कुछ आनंद विशेष होता है । यही कारण है कि सुबह मरीज अपने को कम दुःखी महसूस करते हैं ।
सुबह की हवा खाते-खाते बुद्धि ने करवट ली । कवि तो थे ही, कुदरती सौंदर्य देखते-देखते लगा कि ‘अरे, कहीं तालाब है तो कहीं सरिता है, कहीं कोई बर्तन-ठीकरे हैं... ये साधन भिन्न-भिन्न हैं, इन सबमें सूरज भिन्न-भिन्न ढंग से चमक रहा है परंतु सूरज तो एक है । ऐसे ही वह चैतन्य भिन्न-भिन्न साधनों में भिन्न-भिन्न ढंग से चमक रहा है पर वह चैतन्य तो एक है ।’ इन विचारों में रवीन्द्रनाथ थोड़े शांत हो गये, मौन हो गये । ‘सबमें एक, एक में सब’ ऐसा विचार करते-करते निर्विचार अवस्था में, अपनी मैं में पहुँच गये । फिर जो विश्रांति मिली, जो आनंद व चेतना आयी, जो अपनी गरिमा पता चली उससे आँखों में कुछ और खुमारी आयी ।
आये बूढ़े के पास, दरवाजा खटखटाया, बोले : ‘‘मैंने गीता को जाना है, ईश्वर को जाना है ।’’
बूढ़े ने उन्हें निहारा, बोला कि ‘‘आज तक तू गीता नहीं समझा था, अभी समझा है । एक श्लोक उच्चारा नहीं लेकिन गीता अब तुझे समझ में आ गयी है । तेरी आँखें तेरा पता दे रही हैं ।’’
तो जरूरी नहीं कि कोई गीता का श्लोक बोल दे तो वह गीता का सार समझ गया और किसीको गीता पर प्रवचन या उसकी व्याख्या करने पर पुरस्कार मिल जाय तो वह व्यक्ति आत्मज्ञ हो गया । पंडित, विद्वान या शास्त्री होना और बात है और ब्रह्मवेत्ता होना कुछ निराली बात है !
जब हमारी चित्त की वृत्तियाँ इस देह और जगत को सत्य मानकर उलझती हैं तो हमारा धन, विद्या, सौंदर्य हमारे लिए कब्र खोदने का काम करते हैं, बार-बार हम मरें और जन्में ऐसे कुचक्र का कारण बनते हैं ।
अगर हमारा मैं जगत की सत्यता और देह की अहंता-ममता छोड़कर -
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।
(गीता : 13.8)
इधर को लगता है... जन्म-मृत्यु के, बुढ़ापे के, मित्रों की बेवफाई के दुःख को याद करता है और शत्रुओं के सतानेवाले शब्दों को, संसार की नश्वरता को याद करता है तो लगता है कि अनित्यं असुखं च... - यह अनित्य है, सुखरहित है । जो अनित्य है, सुखरहित है उसको हटाते-हटाते बाकी जो बच जाता है वह नित्य है, सुखस्वरूप है । ‘यह’ को हटाते-हटाते बाकी जो बच जाता है वह ‘मैं’ है । जब ‘मैं’ में विश्रांति होती है तो फिर गीता समझ में आ जाती है, उपनिषदें समझ में आ जाती हैं ।
REF: RP-ISSUE359-2022