श्राद्ध पक्ष : 7 सितम्बर से 21 सितम्बर
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को ‘पितृ पक्ष’ या ‘महालय पक्ष’ बोलते हैं । श्रद्धया दीयते यत्र, तच्छ्राद्धं परिचक्षते । श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए अर्पण किया जाता है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं । जो श्राद्ध नहीं करते हैं वे स्वयं भी घाटे में रहते हैं और उनके पितर भी दुःखी होते हैं । और जो श्राद्ध करते हैं वे स्वयं भी सुखी, सम्पन्न होते हैं और उनके दादे-परदादे... सब पुरखे भी सुखी होते हैं । गरुड़ पुराण (धर्म कांड - प्रेत कल्प : 10.57-58) में आता है :
कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति ।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।
‘श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है ।’
जो श्राद्ध करते हैं उनके पास यश, धन-धान्य, सूझबूझ आती है, कुटुम्ब में अच्छी आत्माएँ आती हैं । पितरों का पिंडदान करनेवाला दीर्घायुष्य का धनी होता है । श्राद्ध पक्ष में अपनी मृत्युतिथि पर पितर अंतवाहक शरीर से अपने परिवार के यहाँ जाते हैं । पितरों का पंचभौतिक शरीर नहीं होता है, वायुमय शरीर होता है । वे बाट देखते रहते हैं कि ‘हमारे पुत्र-पौत्र, संबंधी हमारा श्राद्ध करें ।’ यदि श्राद्ध नहीं करते हैं तो बेचारे निराश होकर दुःखित मन से अपने वंशजों की निंदा करते हैं और लम्बी-लम्बी साँस खींचते हुए अपने-अपने लोकों में जाते हैं । तो उस कुल-खानदान के लिए आशीर्वाद के बदले जो कुछ निकलता होगा वे जानें ।
अतः श्राद्ध के दिनों में अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए । श्रद्धा और मंत्र के मेल से जो विधि होती है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं । श्राद्ध में जो भी मंत्र का, भूमि का और ईश्वरीय विधान का प्रभाव है वह पितरों को तृप्ति देता है । और हम श्राद्ध करते हैं तो हमें बड़ी विशालता का अनुभव होता है । श्राद्धकर्म करानेवाला ब्राह्मण पवित्र हो, जर्दा-तम्बाकू आदि से बचा हुआ हो, रुपये-पैसों में, छल-कपट में रुचिवाला न हो ।
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ।।
(अग्नि पुराण : 117.22)
श्राद्ध का भोजन खिलाते समय यह श्लोक बोलकर देवताओं को, पितरों को, महायोगियों को तथा स्वधा और स्वाहा देवियों को नमस्कार किया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि ‘मेरे पिता को, माता को (जिनका भी श्राद्ध करते हैं उनको) मेरे श्राद्ध का सत्त्व पहुँचे, वे सुखी व प्रसन्न रहें ।’
अगर किसी कारण विधि-विधान से और भोजन-सामग्री आदि से श्राद्ध नहीं भी कर सकते हैं तो भगवान सूर्य के आगे आँखें बंद करके दोनों हाथ खड़े कर दिये अपनी दोनों बगलें दिखें ऐसे, मतलब क्षमा-याचना का भाव हो और प्रार्थना करें कि ‘हे सूर्यदेव ! आपके पुत्र यमराज को सद्भाव देना कि हमारे पिताश्री का (अथवा जिनका भी श्राद्ध हो) श्राद्धकर्म हम कर नहीं पाते हैं लेकिन वे तृप्त हों, उनका मंगल हो ।’ ऐसी प्रार्थना से भी पितरों को कुछ-न-कुछ लाभ होता ही है ।