Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ऐसी दिवाली मनाओ कि आपकी सदा दिवाली हो जाय

18 से 23 अक्टूबर तक दीपावली पर्व है । इसके लौकिक व आध्यात्मिक महत्त्व के बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है :

सामाजिक दृष्टि से देखा जाय तो व्यापारी दिवाली के दिन हिसाब-किताब मिलान करते हैं, सँवारते-सुलझाते हैं । धनतेरस की संध्या को लक्ष्मी-पूजन करते हैं । महारात्रियों के दिनों में मंत्रजप करने से शीघ्र सफलता होती है । शारीरिक दृष्टि से देखा जाय तो दिवाली के दिनों में सर्दियाँ प्रारम्भ होती हैं । पित्त व वायु दोष को निवृत्त करने के लिए शरीर को मिष्टान्न की आवश्यकता है इसलिए ऐसे पदार्थ इस पर्व पर खाने-खिलाने की परम्परा है । शरीर को मजबूत करने का संकेत देनेवाला यह पर्व है ।

दिवाली कब से शुरू हुई ? बोले : ‘भगवान श्रीराम रावण-वध के बाद अयोध्या में आये तो लोगों ने घर-मकानों की, अड़ोस-पड़ोस की, गली-कूचों की साफ-सफाई की, दीप प्रकटाये, मीठा मुँह किया और अभिवादन किया तब से शुरू हुई । लाखों वर्ष हो गये श्रीरामजी को धरती पर प्रकट हुए ।’ दिवाली कब शुरू हुई इस विषय में अन्य भिन्न-भिन्न मत भी प्रचलित हैं ।  

पंच पर्वों का पुंज

दिवाली 5 पर्वों का झुमका है - धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, बलि प्रतिपदा, भाईदूज ।

धनतेरस : धनतेरस के दिन सुबह उठकर भगवान नारायण का चिंतन करो और संकल्प करो कि ‘आज हम महालक्ष्मी की आराधना करेंगे ।’

संध्याकाल में लक्ष्मीजी की प्रतिमा या लक्ष्मीजी के सिक्के का पूजन किया जाता है, लोग पंचामृत से स्नान कराते हैं और प्रार्थना करते हैं कि ‘हे माँ महालक्ष्मी ! जिस पर तू प्रसन्न होती है उसको तू सन्मति देकर सत्यस्वरूप नारायण का दर्शन करा सकती है । हे माँ ! हमारे घर में तुम निवास तो करो पर नारायण की कृपासहित ।’

जो साधक नारायण-रस में डूबता है परम पवित्र महालक्ष्मी उसके इर्द-गिर्द मँडराती है, वह साधक सिद्ध हो जाता है । फिर उसकी चरणरज भी लोगों का भाग्य बदलने का काम कर देगी । यह साधक की दृष्टि की दिवाली है । बाहर की दिवाली तो हर 12 महीने में मनायी जाती है परंतु साधक की दिवाली हर रोज मनायी जा सकती है । 

नरक चतुर्दशी : इसकी रात्रि को (19 अक्टूबर को) मंत्रजप करने मात्र से मंत्र सिद्ध होता है । इस दिन की रात और दीपावली की रात मंत्र-जापकों के लिए वरदानदायी रात्रियाँ हैं । 

इस दिन (20 अक्टूबर को) तेल की मालिश करके सूर्योदय से पूर्व स्नान करना चाहिए । सूर्योदय के बाद जो स्नान करता है उसके पुण्यों का क्षय माना गया है ।

इस दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और 16 हजार कन्याओं को उसकी कैद से छुड़ाया था, अपनी शरण दी थी । वैसे ही आप भी चित्त के नरकासुररूपी अहंकार को आत्मकृष्ण की शरण भेज दो ताकि उसका नाश हो जाय और हजारों की संख्या में जो वृत्तियाँ उसके अधीन हैं वे आत्मारूपी श्रीकृष्ण के अधीन हो जायें । 

दीपावली : चार महारात्रियाँ मानी गयी हैं - होली, जन्माष्टमी, दीपावली और महाशिवरात्रि । दारुण दुःख, दरिद्रता व शोक हर के भगवान का प्रसाद देनेवाली ये रात्रियाँ हैं । इनमें रात्रि-जागरण व जप आदि का अनंत गुना फल होता है । इन रात्रियों में जो सम्भोग करता है उसका आयुष्य और स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है । गर्भ रह गया तो शिशु विकलांग ही पैदा होगा ।

दिवाली में 4 काम किये जाते हैं : 

(1) घर से कूड़ा-कचरा निकालना । शरीर के घर की सफाई ठीक है किंतु उसके साथ-साथ अपने घर की भी सफाई करो । ईंट, चूना, सीमेंट से जो बनता है वह घर तुम्हारा नहीं, शरीर का है । हृदय तुम्हारा घर है । हृदय से हलके विचार, नकारात्मक विचार, दुःख, शोक और चिंता के विचार रूपी कचरे को निकालो । 

(2) दीये जलाना । बाह्य दीयों के साथ आप ज्ञान का दीया जलाओ । हृदय में है तो आत्मा है और सर्वत्र है तो परमात्मा है । वह परमात्मा दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं, सबका अपना आपा है । ज्ञान के नजरिये से अपने ज्ञानस्वरूप में जगो । व्यर्थ का खर्च न करो, व्यर्थ का बोलो नहीं, व्यर्थ का सोओ नहीं, ज्यादा जागो नहीं - युक्ताहारविहारस्य... ज्ञान का दीप जलाओ ।

(3) नयी चीजें खरीदना । लोग नये वस्त्र, बर्तन, सोना, चाँदी आदि-आदि घर में लाते हैं किंतु हृदयरूपी घर में जो नया सामान भरना चाहिए उधर अगर ध्यान नहीं दिया तो बाहर के साधनों से खुशी तो क्षणिक होगी लेकिन उन्हें सँभालने की चिंता, जवाबदारी आ जायेगी, हरदम दिवाली नहीं मना सकेंगे । अंदर ऐसे साधन बसा दो कि उनको सँभालने की जवाबदारी तुम्हारी न रहे, उनको सँभालने की जवाबदारी तुम्हारा प्रियतम सहज में पूरी कर दे । ऐसे विवेक, वैराग्य, ज्ञान, प्रेम, आनंद आदि को हृदय में भरते जाओ ।

(4) मिठाई खाना और खिलाना । जैसे मिठाई खाते और खिलाते हैं ऐसे ही हम प्रसन्न रहें और प्रसन्नता बाँटें । शत्रु को भी टोटे चबवाने की अपेक्षा खीर-खाँड़ खिलाने का विचार करें तो आपके चित्त में मधुरता रहेगी ।

बलि प्रतिपदा, नूतन वर्ष : कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बलि प्रतिपदा भी कहा जाता है । इस दिन गृहस्थों को पूजन, चिंतन, ध्यान-भजन, गुरु-दर्शन करना अत्यंत सुखद होता है । 365 दिन का जो चक्र घूमता है उसमें वर्ष का आखिरी दिन है दीपावली और वर्ष का आरम्भिक दिन है यह प्रतिपदा (गुजराती विक्रम संवत् के अनुसार) । इस दिन वेद-पुराण, गौ, पीपल वृक्ष, तुलसी, गौशाला, सफेद धान्य, घी, ताँबा, सफेद फूल, दीपक आदि का दर्शन पुण्य-प्रदायक माना गया है ।

जैसे सुबह के आरम्भिक दर्शन और विचार का पूरे दिन पर प्रभाव पड़ता है ऐसे ही वर्ष के आरम्भिक दिन के विचार, दर्शन और हृदय की स्थिति का पूरे वर्ष प्रभाव रहता है । 

दीन भाव, दुःखद भाव, चिंता के भाव अपने-आपका विनाश करनेवाले हैं । नूतन वर्ष के दिन हृदय को उत्साह से, माधुर्य से भरा जाना चाहिए । एक-दूसरे से प्रेम से मिलना और एक-दूसरे की गहराई में प्रेमास्पद (परमात्मा) को निहारना है । मंगल प्रभात, अद्भुत नूतन वर्ष, अलौकिक नूतन वर्ष !

भाईदूज : इस दिन यमी ने अपने भाई यमराज को भोजन कराया । प्रीतिभरे भोजन से संतुष्ट होकर यमराज ने कहा : ‘‘बहन ! कुछ माँग ले ।’’ 

यमी : ‘‘आज के दिन जो भाई अपनी बहन के यहाँ भोजन करे और बहन उसे ललाट पर तिलक करे तो वह त्रिलोचन, बुद्धिमान बने और तुम्हारे यमपाश में न बँधे ।’’

यमराज प्रसन्न हुए कि ‘‘बहन ! ऐसा ही होगा ।’’

इस उत्सव ने भारत के भाइयों और बहनों को पवित्र स्नेह से जोड़े रखने का बड़ा ऊँचा काम किया । इससे बहन की सुरक्षा की जिम्मेदारी शुभ भाव से भाई स्वीकार कर लेता है और भाई के लिए बहन के शुभ संकल्पों की परम्परा सँवारी जाती है । बहन इस भाव से भाई को तिलक करती है कि ‘मेरा भैया त्रिलोचन बने, उसका सद्विवेकरूपी तीसरा नेत्र जागृत हो ।’ फिर भैया को भोजन कराना है तो उसमें स्नेह के स्पंदन भी जाते हैं । होटल आदि में बने, मशीनों के द्वारा बने भोजन व स्नेहियों के द्वारा बने हुए भोजन में जमीन-आसमान का फर्क है ।

भाई और बहन का निर्दोष प्रेम, निर्दोष शुभ संकल्प इसके पीछे जितना तीव्र होता है उतना ही दोनों का रक्षण-पोषण होता है और इस कर्म को श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, सदाचार के द्वारा चार चाँद लग जाते हैं । 

दीपावली को पर्वों की महारानी कहा जाता है, जिसे 5 दिनों तक आनंदोल्लास के साथ मनाया जाता है । शिष्यों की दृष्टि से यदि इस पर्व में सद्गुरु के दर्शन-सान्निध्य व सत्संग से अंतर्ज्योति जगाने का सौभाग्य मिल जाय तो इसे महापर्व, परमात्म-पर्व भी कह सकते हैं ।