- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
भगवद्गीता भगवान के अनुभव की पोथी है । गीता बुद्धि में योग देने आयी है, कर्म-बंधनों को काटकर कर्म को योग बनाने की ताकत रखती है भगवद्गीता । यह जीवात्मा को जीते-जी परमात्मा का रस दिलाने आयी है ।
भगवद्गीता का सत्संगी बीते हुए को स्वप्न समझता है, ‘भविष्य अपने हाथ में नहीं, पास में नहीं और वर्तमान बीत रहा है’ ऐसा जानता है और संयम, परोपकार, भगवद् सेवा व स्मृति से वर्तमान को सुंदर बनाने की कला सीख लेता है । जिसको वर्तमान को सुंदर बनाने की कला आ गयी उसका भूत और भविष्य सुंदर हो ही जायेगा ।
इसमें सबके लिए भरा है खजाना
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता - ये प्रस्थानत्रयी माने जाते हैं । असली हक (परमात्मा) का जाम पीने के लिए राजमार्ग दिखानेवाले ये 3 सद्ग्रंथ बताये गये हैं । ब्रह्मसूत्र में विद्वानों की पहुँच है, उपनिषद् में जिज्ञासुओं की पहुँच है परंतु गीता तो विद्वानों को भी आमंत्रित कर देती है, भक्तों को भी वहाँ से सुमन दे देती है, स्त्रियों को भी कुछ योग्यताएँ विकसित करने की कला सिखाती है और जिज्ञासुओं को, विद्यार्थियों को भी रास्ता दिखाती है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़ के सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’
(गीता : 4.34)
और राजनेताओं को भी गीता कुछ-न-कुछ माल दे देती है । कर्म तो करो लेकिन कर्म में ‘बहुजनहिताय’ का लक्ष्य रखो । नम्रता, सरलता, सहजता - ये सद्गुण राजनेताओं को गीता दे देती है और हमारे जैसे साधु-संतों को भी गीता खजाना दे दिया करती है ।
बालक श्रीकृष्ण ने बंसी द्वारा, कीर्तन द्वारा अनपढ़ लोगों के अंदर भी ब्रह्मविद्या का अमृत सींच दिया और योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में थके-माँदे, किंकर्तव्यविमूढ़ता (कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ होने) की अवस्था में पहुँचे हुए उस जमाने के प्रसिद्ध योद्धा अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर उसका दिशा-निर्देशन किया ।
दुनिया जानती थी कि गांधीजी के लिए लोगों ने क्या नहीं कहा और क्या नहीं किया । गांधीजी कहते हैं कि ‘‘मेरा बाह्य जीवन तो दुःख, विघ्न-बाधा और परेशानियों से भरा हुआ है । जब-जब मुझे दुःख और विघ्न-परेशानियाँ घेर लेती हैं तब-तब मैं गीता माता के पास दौड़कर पहुँच जाता हूँ और गीता माता में से मुझे समाधान न मिला हो ऐसा कभी नहीं हुआ है ।’’
जीवन जीने की कला सिखाती है गीता
पग-पग पर जिनके जीवन में काँटे हैं फिर भी जिनकी मुरली बज रही है और मिठास छलक रही है वे हैं श्रीकृष्ण । जीवन जीने की कला सिखाती है गीता ।
ऐसा मत समझना कि ‘मैं अभागा हूँ, मेरे ग्रह ठीक नहीं हैं... ।’ तुम्हारे तो 1-2 ग्रह गड़बड़ होंगे किंतु श्रीकृष्ण के ग्रह तो ऐसे थे कि विघ्न-बाधाओं से उनका जीवन भरा हुआ था । श्रीकृष्ण आनेवाले थे उसके पहले माँ-बाप को कारागृह में जाना पड़ा । छठा दिन हुआ तो पूतना विष पिलाने आयी है । बचपन में मामा कंस के साथ, बकासुर, अघासुर, चाणूर, मुष्टिक - इन योद्धाओं से भिड़ना पड़ा है ।
जो अनपढ़ हैं उनको श्रीकृष्ण बंसी बजाकर प्रेम के द्वारा, जो पठित और विचारक हैं उनको उपदेश के द्वारा और जो भावुक हैं उनको भक्ति के द्वारा और जो प्राण-प्रधान हैं उनको योग के द्वारा, जो कर्म-प्रधान हैं उनको निष्कामता के द्वारा जगा देते हैं । श्रीकृष्ण ने गीता में ऐसा कुछ भर दिया है कि सबको इससे बहुत कुछ मिल जाता है ।
कोई तुमसे पूछे : ‘तुम्हारा धर्मग्रंथ कौन-सा है ?’ तो आप दावे से कह दो कि ‘केवल हमारा नहीं, पूरे विश्व का धर्मग्रंथ, जिसमें कोई आग्रह नहीं है, जीवमात्र के कल्याण की बात है वह ‘गीता’ हमारा धर्मग्रंथ है ।’