(पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत से)
ब्रिह्मलीन मातुश्री श्री माँ महँगीबाजी के महानिर्वाण दिवस पर विशेष
दूसरी ये माता मेरे ध्यान में हैं
मेरी माँ मेरे को बेटा नहीं मानती थीं बल्कि गुरु के रूप में, भगवान के रूप में मानती थीं और मेरे को बहुत याद करती थीं । कोई किसीको याद करता है तो सामनेवाले को भी उसकी याद अपने-आप आ जाती है । माँ गजब का याद करती थीं !
1998 की बात है । उस समय माँ हरिद्वार में थीं और मैं अहमदाबाद की तरफ था । उन्होंने मेरे को दम मार के एक संदेशा भेजा : ‘भक्तों के पीछे तो जाते हो, अहमदाबाद में महीनों तक इधर-उधर दर्शन देते हो, मैंने क्या गुनाह किया है ? अगर हरिद्वार जल्दी नहीं आते हो तो मैं फिर चली जाऊँगी ।’
चली जाऊँगी मतलब शरीर छोड़ दूँगी । मैंने संदेशा भेजा : ‘ऐसा मत करियो, मैं अभी आता हूँ ।’ फिर मैं गया ।
ये मुहब्बत* की बातें हैं ओधव !
बंदगी अपने बस की नहीं है ।...
जिसको जन्म दिया है, जिसको दूध पिलाया है उस पुत्र में गुरुबुद्धि या भगवद्बुद्धि करना यह मजाक की बात नहीं है ! और मैं तो उनको दिन-रात ‘माँ-माँ’ बोलता था, ऐसा थोड़े ही बोलता था कि ‘वे मेरी भक्त हैं, वे मेरी शिष्या हैं...’
पुत्र में गुरुबुद्धि, परमात्मबुद्धि... ऐसी श्रद्धा हमने एक देवहूति माता में देखी और दूसरी ये माता मेरे ध्यान में हैं । माता देवहूति ने अपने सुपुत्र कपिल मुनि में भगवद्बुद्धि की और उनका उपदेश सुनकर आत्मसिद्धि प्राप्त की । जहाँ सिद्धि मिली वह ‘सिद्धपद’ (वर्तमान में ‘सिद्धपुर’, गुजरात) माँ की श्रद्धा और बेटे का ब्रह्मज्ञान - दोनों के मेल से परब्रह्म-परमात्मा की सिद्धि-प्राप्ति की अब भी खबर दे रहा है ।
जैसे कपिल मुनि की माँ देवहूति आत्मारामी हुईं ऐसे ही माँ महँगीबा आत्मारामी होकर, नश्वर चोले को छोड़ के, शाश्वत सत्ता में लीन हुईं अथवा संकल्प करके कहीं भी प्रकट हो सकें ऐसी दशा में पहुँचीं ।
(माँ महँगीबाजी का जीवन श्रद्धा, गुरुभक्ति का ऐसा आदर्श उदाहरण है जिससे लाखों-करोड़ों लोगों ने प्रेरणा पायी है, पा रहे हैं । अहमदाबाद आश्रम में स्थित माँ महँगीबाजी का समाधि-स्थल आज ईश्वरप्राप्ति के पथिकों के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है ।)
माँ के हाथ की रोटी
माँ जब 82 साल की हो गयीं तब की बात है । उन्होंने मेरे लिए रोटी बनायी । उन्हें वह बनाने में परिश्रम पड़ेगा यह मैं जानता था और मेरे लिए तो लाखों लोग रोटी बना के ला सकते हैं, मुझे क्या टोटा है ! फिर भी मैंने माँ को बोला : ‘‘तुम्हारे हाथ की रोटी याद आती है ।’’
तो माँ ने रोटी बनायी और मैंने वह खायी, मुझे अब भी याद है । जो भक्त माँ होती है और भोजन बनाती है तो उसमें भगवान की भक्ति का रस भी तो आता है ! अब भी मेरी माँ मुझे दिखे तो मैं बोलूँगा : ‘रोटी बना दो ।’ अब मेरे लिए तो लोग क्या-क्या पकवान बनाते हैं परंतु माँ के हाथ की रोटी मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा । जैसे रामजी शबरी के बेर नहीं भूल पाते ऐसे मैं मेरी माँ के हाथ की रोटी नहीं भूल पाता हूँ । माँ तो माँ होती है परंतु माँ जब भक्ति करती है और ‘मेरे पुत्र का मंगल हो’ ऐसा सोच के बनाती है तो वह रोटी नहीं महाप्रसाद है ।