Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अमृत को परोसने की परम्परा : गुरुपूनम महापर्व

(गुरुपूर्णिमा महापर्व :21 जुलाई)
गुरुपूनम माने बड़ी पूनम । प्रतिपदा का चाँद, द्वितीया का चाँद... ऐसे एक-एक कला बढ़ते हुए चाँद जब पूर्ण विकसित रूप में हमको दर्शन देता है तब पूनम होती है । ऐसे ही हमारे चित्त की कलाएँ बढ़ते-बढ़ते जब पूरे प्रभु की आराधना की तरफ लग जायें तो हमारे जीवन का जो उद्देश्य है वह सार्थक हो जाता है ।
गुरुपूनम को व्यासपूनम भी बोलते हैं । ‘व्यास’ माने जो हमारी बिखरी हुई वृत्तियों को, मान्यताओं को, जीवन की धाराओं को सुव्यवस्थित करें । दूसरा अर्थ होता है कि उस एक ब्रह्म की बात साधारण व्यक्ति समझ नहीं सकेगा तो वह समझ सके इस दृष्टि से विस्तार से कथाएँ, इतिहास, दृष्टांत देकर जो उसके चित्त को परब्रह्म-परमात्मा के ज्ञान की तरफ ले जाय और अहंकार, द्वेष, स्वार्थ हटा के जीवन में अहंकार की जगह पर निरहंकारिता लाये, द्वेष की जगह पर क्षमा व नम्रता का गुण सजाये, स्वार्थ की जगह पर निःस्वार्थ कर्मयोग लाये, संकीर्णता हटा के उदारता लाये ऐसी जिनकी वाणी हो, उपदेश हो, ऐसी जिनकी व्यवस्था करने की कला हो ऐसे सत्पुरुषों को ‘व्यास’ कहा जाता है ।
गुरुपूर्णिमा का उद्देश्य
मनुष्य आते भी रोता है, जाते भी रोता है और रोने का वक्त नहीं होता है तब भी रोता है । लेकिन आत्मविद्या व्यक्ति को ऐसे ऊँचे आसन पर बिठा देती है कि महाराज ! दुःख और क्लेशों के समय भी वह शांति और प्रसन्नता से मुस्करा सकता है । दुःख और क्लेशों के समय यह ब्रह्मविद्या तुम्हें हँसना सिखाती है, धैर्य, साहस व आत्मप्रेम सिखाती है, अनेक में एक को देखने की कला सिखाती है । इस ब्रह्मविद्या को हर हृदय तक पहुँचाने की व्यवस्था जिन ऋषियों ने की उन महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा ।
दूसरे पूजनों के बाद भी किसीका पूजन रह जाता है लेकिन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों के पूजन के बाद और किसीका पूजन नहीं रह जाता । दुनियाभर के काम करने के बाद भी कुछ काम बच जाते हैं और सदियों तक पूरे नहीं होते हैं किंतु ब्रह्मवेत्ता गुरु के बताये हुए (परमात्मप्राप्ति के) कार्य को जिन्होंने तत्परता से कर लिया उनके सब काम पूरे हो गये ।
‘गुरु’ माने महान... जो छोटे-छोटे दुःख-क्लेशों और परिस्थितियों में हिलें नहीं, आप भी ऊपर उठें और अड़ोस-पड़ोस का भी कल्याण चाहें । गुरुपूर्णिमा हमें हमारी आंतरिक - छुपी हुई शक्तियों को जगाने की दिशा देती है और दुर्बल विचारों को, घृणा, अशांति के विचारों को दूर करते हुए आत्मविचार की दृष्टि से जीवन जीने की कला बताती है ।
भारत ने यह परम्परा सँभाल रखी है
गुरुपूर्णिमा भारत में तो क्या, सारे जगत में मनायी जाती थी लेकिन समय की ऐसी कंगालियत आयी कि अन्य देश इस गुरुपूर्णिमा का ज्ञान और गुरु-परम्परा का अमृत पीना-पिलाना भूल गये पर भारत ने अभी तक इसे सँभाल रखा है और हर पूनम को भारत के लाखों लाल गुरुपूजन करके, मार्गदर्शन पा के पुण्यात्मा बन जाते हैं ।
जो मानव को लघु से गुरु बना दे, जो चल से अचल में प्रतिष्ठित कर दे, जो नश्वर देह में ‘मैं’ बुद्धि करने की जीव की भूल को तोड़कर अपने शिवस्वभाव में जगा दे वह गुरुपूर्णिमा का पावन उत्सव है । ब्रह्मवेत्ता भगवान व्यासजी के पावन वचनों के अमृत को परोसने की परम्परा जब तक चालू है तब तक हे मानव ! तू हताश-निराश मत हो, तू घबरा मत, तुझमें अनंत-अनंत सम्भावनाएँ हैं, तुझमें अनंत-अनंत सामर्थ्य छुपा है ।
हे मानव ! हे मेरे मित्र ! तेरे पास बहुत विद्या या धन नहीं है तो घबरा मत, रूप-लावण्य नहीं है तो इसकी कोई जरूरत नहीं, मित्र-परिवार नहीं है तो तू चिंता मत कर, तेरे पास सहज श्रद्धा है तो पर्याप्त है । तेरा हृदय परमात्मा को चाहता है, तेरे हृदय में संतों के वचन शोभा पाते हैं यही तेरी योग्यता है । तुझको ध्यान में रुचि है, गुरुमंत्र में प्रीति है यह तेरी योग्यता है । तुझको ब्रह्मविद्या का रसपान करते हुए धन्यता का अनुभव हो रहा है यह तेरी परम योग्यता है । और कोई योग्यता न दिखे तो तू चिंता मत कर, तू घबरा मत, तू जैसा है वैसे-का-वैसा परमात्मा को पाने का इरादा कर, तू तुरंत स्वीकार हो जायेगा ।
साधना का अनमोल उपहार, जो कर दे वासनाओं से पार
निर्वासनिक होने का इरादा किया तो फिर ऐसा योग मिल जाता है - ‘राजाधिराज योग’ । क्या करना है कि त्रिबंध करके प्राणायाम करने हैं । फिर मूलबंध1 करके बैठें और जीभ को तालू में लगायें । ज्ञानमुद्रा2 में बैठें, श्वासोच्छ्वास को गिनें (श्वास अंदर जाय तो ‘ॐ’, बाहर आये तो ‘1’... अंदर जाय तो ‘आनंद’, बाहर आये तो ‘2’...) और गुरु को, स्वस्तिक या ॐकार को एकटक देखते रहें । फिर मन इधर-उधर जाय तो ओऽ... म्... लम्बा ॐकार का गुंजन करें । आधा घंटे तक इस साधना को ले जाय तो बहुत फायदा होता है ।
यह तो आम सत्संग में तो कोई करते नहीं इसलिए बोला जाता है कि 6 मिनट से शुरू करो । 6 मिनट, 8 मिनट... ऐसा करके आधा घंटा-एक घंटा करे और ‘ईश्वर की ओर’ पुस्तक पढ़े, ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ का प्रथम भाग पढ़े । ॐ ॐ ॐ... फिर ऐसी आदत भी डाल देवे - होंठों में जपे : ‘ॐ... सर्वत्र हरि व्यापक ॐ, वासुदेवः सर्वम्...’ इससे व्यक्ति जल्दी निर्वासनिक हो जायेगा ।
ॐ ॐ ॐ... मुख से प्रेम से जपो, फिर होंठों में जपो, फिर कंठ में जपो, फिर हृदय में जपो । हृदय में ज्यादा देर जप नहीं कर पाओगे तो क्या करोगे ? लम्बा श्वास लेकर ओऽ...... म्..... ॐ का दीर्घ गुंजन करो । यह लगता बहुत साधारण प्रयोग है लेकिन इससे ‘अ’ और ‘म’ के बीच निःसंकल्प, अंतर्यामी अवस्था आयेगी ।
ऊँची बुद्धि से ऊँचे-में-ऊँचे परमात्मा में प्रतिष्ठित होता है । नीच खुराक से नीची बुद्धि बनती है तो नीची चीजों में आकर्षण हो जाता है । इसलिए खान-पान ऊँचा (सात्त्विक, सादा, सुपाच्य व हक का) हो, शास्त्र ऊँचा हो, संग ऊँचा हो, उद्देश्य ऊँचा हो बस, ईश्वरप्राप्ति !
अपने मन के कहने में तो सभी जीव चलते हैं, कितना सुख होता है ? हमारा भला किसमें है यह तो गुरु और शास्त्र जो दृष्टिकोण देते हैं उससे पता चलता है और बड़ा फायदा हो जाता है । यह साधना बतायी है । अब लग जाओ बस !
1. गुदाद्वार का संकोचन 2. हाथों के अँगूठे के पासवाली पहली उँगली का अग्रभाग अँगूठे के अग्रभाग के नीचे स्पर्श करायें । शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें ।
REF: RISHIPRASAD-2020-JUNE-2020