Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अपने जन्म-कर्म को दिव्य कैसे बनायें ?

29 अप्रैल को पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का अवतरण दिवस है । आप सभीको इस दिन की खूब-खूब बधाई ! इस पावन पर्व पर जानते हैं जन्म-कर्म को दिव्य बनाने का रहस्य पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत से :
मन में दुःखीपने का भाव आया उस समय दुःख का जन्म हुआ । सुखीपने का भाव आया तो सुख का जन्म हुआ । ‘मैं बालक हूँ’ भाव आया तो बालकपने का जन्म हुआ । ‘मैं वृद्ध हूँ’ भाव आया तो वृद्धत्व का जन्म हुआ परंतु मैं तो इन सबको जाननेवाला हूँ ।
असंगो ह्ययं पुरुषः... ‘मैं सब परिस्थितियों से असंग, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशमात्र, चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप हूँ...’ इस प्रकार भगवान अपने स्वतःस्फुरित, स्वतःसिद्ध स्वभाव को जानते हैं । ऐसे ही आप भी अपने स्वतःसिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेंगे ।
शरीर को मैं मानना और शरीर की अवस्था को मेरी मानना यह जन्म है । हाथ-पैर, इन्द्रियों से कर्म होता है, उसमें कर्तृत्व मानना कर्म है । ‘कर रहे हैं हाथ-पैर और मैं इनको सत्ता देनेवाला चैतन्य हूँ’ - इस प्रकार यदि जान लिया तो कर्म और जन्म दिव्य हो जाते हैं ।
वास्तव में उत्तम साधक तो जानता है कि हाथ-पैर काम करते हैं, आँख देखती है, मन सोचता है, बुद्धि निर्णय करती है - इन सबमें बदलाहट होती है । देश (स्थान-विशेष) में बदलाहट होती है । अभी हम यहाँ बैठे हैं, थोड़ी देर के बाद और जगह बैठेंगे । अभी 12 बजकर 51 मिनट हुए हैं तो 12:50 भूतकाल हो गया और 12:55 भविष्यकाल में है । काल को भी हमारा ज्ञानस्वभाव देखता है । हम देश से भी परे हैं, काल से भी परे हैं । वस्तुएँ आती-जाती हैं, उन सबको जाननेवाले ज्ञानस्वरूप हम स्वतःसिद्ध हैं । हम देश को भी देखते हैं, काल को भी देखते हैं, वस्तु को भी देखते हैं और वस्तुओं के आने-जाने को भी देखते हैं । वह देखनेवाला जो है उसे अपने-आपकी स्मृति आ जाय, वह अपने-आपमें जग जाय तो उसके जन्म-कर्म दिव्य हो जायेंगे । जिसने भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों के जन्म और कर्म को दिव्य नहीं माना, नहीं जाना वह अपने जन्म और कर्म को दिव्य कैसे मानेगा, कैसे जानेगा ?
जो बोलते हैं कि ‘हमारा जन्म होता है, हम मर जायेंगे, सुखी हैं, दुःखी हैं...’ तो समझ लो वे निगुरे हैं निगुरे ! उनको गुरु के ज्ञान का, श्रीकृष्ण के ज्ञान का पता ही नहीं । ये जो गुणों के संघात हैं - सात्त्विक-राजस-तामस, सात्त्विक-राजस मिश्रित, राजस-तामस मिश्रित, तामस-सात्त्विक मिश्रित, इनसे जो विचित्र-विचित्र कर्म बनते हैं, विचित्र-विचित्र भाव बनते हैं वे सब बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है और सबकी बदलाहट को जो जाननेवाला है, वह दिव्य स्वरूप, अधिष्ठान है । जैसे पानी में तरंगें हुईं, बुलबुले हुए, झाग हुए, भँवर हुए लेकिन पानी ज्यों-का-त्यों, ऐसे ही मन में स्फुरण हुए, बुद्धि में निर्णय हुए, शरीर में बदलाहट हुई, सुखाकार-दुःखाकार वृत्तियाँ हुईं परंतु ये सब वृत्तियाँ जिस परमात्म-सत्ता से जानी जाती हैं वह मैं (आत्मा) हूँ ऐसा जो जान लेता है वह मरने के बाद नीच या ऊँच योनियों में भटकता नहीं है, भगवान के स्वतःसिद्ध स्वभाव में स्थित हो जाता है ।
भगवान कहते हैं : जन्म कर्म च मे दिव्यं... अर्जुन ! जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक जानता है... लौकिक कर्म वे होते हैं जिनमें फल की वासना हो, कर्तृत्व का भाव हो और देह में अहं हो परंतु ज्ञानी में कर्तृत्वभाव नहीं है, फलाकांक्षा नहीं है, देहाभिमान नहीं है तो उनके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं ।   
REF: ISSUE276-RP-2024