(श्रीराम नवमी : 17 अप्रैल)
भगवान रामजी सुबह नींद से उठते ही आत्मशांति में, ध्यान में मग्न हो जाते, फिर दोनों हाथ अपने मुख (चेहरे) पर घुमाते । जिस नथुने से श्वास चलता, वही पैर धरती पर रखते थे । इससे शुभ संकल्प सफल होते हैं । फिर रामजी पवित्र वस्तुओं का दर्शन करते थे । जैसे देव-दर्शन है, काँसे के कटोरे में रखे हुए घी का दर्शन है । फिर माता, पिता व गुरुदेव को प्रणाम करते थे ।
रामजी को बाल्यकाल में दीक्षा मिली, बाद में शिक्षा के लिए गुरुकुल में गये । रामजी बोलते तो सारगर्भित, मधुर व शास्त्रसम्मत बोलते थे । दूसरे को मान देनेवाली वाणी बोलते थे और अपने से छोटों का उत्साह बढ़ाते थे । चिड़चिड़ा स्वभाव रामजी का था ही नहीं । हुकूमत से नहीं, प्रेम से समझा देते थे । राजदरबार में भी कभी वैमनस्य हो जाता तो रामजी किसी एक पक्ष को यह नहीं बोलते कि ‘तुम गलत हो, यह सही है ।’ नहीं, जो सही है उनके पक्ष में रामजी उदाहरण देते, इतिहास बताते, पूर्वजनों की बात सुनाते । जो गलत होते वे अपने-आप ही उचित को समझ जाते थे ।
रामजी आदर्श भ्राता थे, आदर्श पति थे, आदर्श मित्र थे, आदर्श शासक थे और आदर्श शिष्य भी थे क्योंकि रामजी के जीवन में सब कुछ पूर्ण विकसित है और जितना जिनका ऐसा विकास होता है, उतने वे रामजी की नाईं सम्मानित होते हैं । नहीं तो षड़्यंत्र करके, छल-कपट, दाँव-पेच करके कई लोग सम्मानित होने के लिए क्या-क्या खेल खेलते हैं । रावण दाँव खेलता रहा, कोई सम्मान नहीं मिला । हर 12 महीने में दे दीयासलाई ! प्राणबल, मनोबल तो था रावण के पास लेकिन मानवीय संवेदनाएँ, भोग से उपरामता और आत्मा-परमात्मा में विश्रांति इसकी कमी थी । रामजी में यह सब विकसित था, उनका पूर्ण जीवन था ।
जब रावण सीताजी को लंका ले जाता है या लक्ष्मण मूचि्र्छत हो जाते हैं तो भगवान रामजी विलाप करते हैं, समझ के रोते हैं । ‘‘हाय लक्ष्मण ! हाय लक्ष्मण !... हाय सीते ! हाय सीते !...’’ भीतर ज्यों-के-त्यों हैं । श्रीरामचन्द्रजी के साथ उनकी छाया बने हुए लक्ष्मणजी भी श्रीराम के अभिनय को नहीं जान पाये थे ।
बालि की मृत्यु के बाद जब सुग्रीव पुनः भोग-विलास में खोकर सीताजी को लाने की सेवा भूल-सा गया था तो श्रीरामजी ने कुपित होकर कहा : ‘‘जिस बाण से बालि को मैंने भेज दिया था, वही बाण सुग्रीव के लिए पर्याप्त रहेगा । अब सुग्रीव को मैं नहीं छोड़ूँगा, चाहे ब्रह्माजी भी आ जायें सुग्रीव के पक्ष में ! सुग्रीव कल शाम का सूर्यास्त नहीं देख सकता है...’’ और भी कुछ-का-कुछ रामजी ने कुपित होकर सुग्रीव के लिए कहा ।
लक्ष्मण के रोंगटे खड़े हो गये । लक्ष्मण ने उठाया धनुष-बाण, बोले : ‘‘आप उस सुग्रीव के लिए कल परिश्रम करें तो आपके अनुज का जीवन किस काम आयेगा ? मैं अभी जाता हूँ, उस उद्दंड सुग्रीव को मौत के घाट उतारकर जल्दी आऊँगा । और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सुग्रीव के पक्ष में ब्रह्माजी अथवा कोई भी रहें लेकिन सुग्रीव को जीवित नहीं रखूँगा !’’
रामजी तब लक्ष्मण को धीरे-से बोलते हैं : ‘‘देख लक्ष्मण ! जा और ऐसे ही जा लेकिन उसको मारना नहीं है ।’’
लक्ष्मण के पैरों तले धरती निकल गयी कि ‘जा लेकिन उसको मारना नहीं !... अभी तो इतने कोपायमान हो रहे थे मारने के लिए !’
रामजी कहते हैं : ‘‘उसको मारना नहीं और देख, उसमें दो बातें हैं : वह डरपोक है और भगोड़ा भी है । तो ऐसा नहीं भगाना कि हमारे से दूर भाग जाय । डराना लेकिन ऐसा डराना कि अपने पास आये । बालि सताता था तो वह अपने पास आया, बालि को मैंने मारा उसके कहने से लेकिन अब वह भोग-विलास में पड़ गया है । यह अष्टधा प्रकृति तो उसे नोच-नोच के कई योनियों में भटकायेगी इसलिए उसको यहाँ लाना है ।’’
हृदय में सुग्रीव के लिए कितना कल्याण छुपा है और बाहर से सुग्रीव के लिए कितनी कठोरता दिखाई दे रही है ! तो ये मुसीबतें, समस्याएँ और भय भी आपको भगवान की तरफ ले आते हैं । वे महापुरुष रोने का अभिनय करके, अपने सिर पर सब लेकर हमें जगाने की न जाने क्या-क्या कलाएँ, लीलाएँ करते रहते हैं ! नहीं तो यह टॉफी बाँटना, होली का रंग छिड़कना, प्रसाद लेना-बाँटना यह हमारी दुनिया के आगे बहुत-बहुत नीची बात है, छोटी बात है ।
संसार-ताप से तप्त जीवों को, मर्यादा भूलकर राग-द्वेष और ईर्ष्या की अग्नि में स्वयं को जलानेवाले मानव को मर्यादा से जीकर शीतलता पाने का संदेश देनेवाला जो अवतार है, वही मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामावतार है ।
REF: ISSUE291-MARCH-2017