Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

विश्वशांति तभी सम्भव है

(दूरदर्शन पर पूर्व में प्रसारित पूज्य बापूजी का विश्वशांति संदेश)
प्रश्न : ‘‘स्वामीजी ! विश्वशांति और अध्यात्मवाद में क्या संबंध है ?’’
पूज्य बापूजी : ‘‘जैसे दूध और दूध की सफेदी का संबंध अभिन्न है, ऐसे ही आध्यात्मिकता व विश्वशांति का अभिन्न संबंध है । जितने-जितने विश्व में आध्यात्मिक विचार फैलेंगे, उतनी-उतनी ही विश्व में शांंति रहेगी । ‘दूसरे के बच्चे अनपढ़ रहें और मेरे सुखी रहें, दूसरा भूखा मरे और मैं मौज उड़ाता रहूँ...’ - ऐसे शोषण के विचार आध्यात्मिकता के विरुद्ध हैं । आध्यात्मिकता सिखाती है :
वैष्णवजन तो तेने रे कहिये,
जे पीड़ पराई जाणे रे...
अगर आराम चाहे तू,
दे आराम खलकत को ।
सताकर गैर लोगों को,
मिलेगा कब अमन तुझको ?
जो दूसरों की गहराई में परमेश्वर, अल्लाह, गॉड छुपा है... जो भी शब्द कह दो, हर दिल की धड़कनें उसीकी सत्ता से चलती हैं । जिस सत्ता से मेरी आँख देखती है उसीकी सत्ता से आपकी, उनकी, सबकी आँख देखती है, फिर चाहे वे किसी मजहब, जाति के हों । जिस सत्ता से मेरा दिल धड़कता है, वही सत्ता सबके दिल में है । ऐसा सुमिरन करके अगर सबकी भलाई की भावना की जाय तो विश्वशांति अपने-आप आने लगेगी ।
किसीका बुरा न सोचें, बुरा न चाहें । न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर बंदी की भलाई की भावना से भरकर उसे कारावास भेजते हैं तो यह कर्म पुण्यमय कर्मयोग हो जायेगा। दबाव में, द्वेष में, लोभ में आकर कर्म करते हैं तो वह कर्म कर्मबंधन हो जायेगा ।    
आज आदमी व्यक्तिगत, अपने स्वार्थ की संकीर्णता में ऐसा हो गया कि अड़ोस-पड़ोस का, राज्य का, राष्ट— का खयाल न रखकर ‘मैं सुखी रहूँ बस ।...’ लेकिन जब पड़ोस में आग लगेगी तो मेरे घर में भी तो आग आयेगी ! पड़ोस में समस्या होगी तो मेरे पास भी समस्याएँ आयेंगी । तो सबके भले में हमारा भला है । हवा का प्रदूषण मिटाना तो बहुत अच्छा है, जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा विचारों का प्रदूषण आध्यात्मिकता से मिटाना चाहिए । विचारों का प्रदूषण बहुत प्रभाव रखता है । हवा की अपनी स्वतः कोई विशेषता नहीं होती। वह जहाँ से गुजरती है, वहीं की दुर्गंध, सुगंध लेकर बिखेर देती है, ऐसे ही विचार का प्रभाव होता है। जैसे हमारे विचार हैं... हम अगर शोषण, घृणा, मोह, अशांति, झूठ-कपट से भरे हैं, दूसरों को उलझाने और बहकाने के विचारों से भरे हैं तो ये हमारे दूषित विचार हमें और हमारे सम्पर्कवाले को तो प्रभावित करेंगे, साथ ही ये वातावरण में भी फैल जायेंगे और सीधे-सादे, भोले-भाले लोगों को भी दूषित कर देंगे । अगर हम प्रेम से भरे हैं, ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय’ के भाव से भरे हैं तो हमारे विचार हमें भी शांति, सुख और ऊँची समझ देंगे और आसपास में भी वही माहौल बनायेंगे । इसलिए विश्व के सब लोगों को मिलकर इस विश्व-अशांति को बदलने के लिए विश्व के मंगल की भावना करनी चाहिए ।
सेवा अपने शरीर से शुरू होती है, दान अपनी जेब से शुरू होता है और भजन अपने मन से शुरू होता है, निश्चय अपनी मति से शुरू होता है । ऐसे ही सब लोग अपना-अपना कर्तव्य समझकर मानवता का जो ह्रास हो रहा है, उसको रोकने का प्रयास करें । यह अध्यात्मवाद के सहारे ही हो सकता है ।
खीीेंर्ीीं,ूेर्ीीीेंर्ीीं,ुहेुळश्रश्र लरीीू वळीीेंर्ीीं ? ‘मैं भी रानी, तू भी रानी, कौन भरेगा घर का पानी ?’ एक बोलता है : ‘मैं बड़ा’, दूसरा बोलता है : ‘मैं बड़ा’... यह अहंकार की बदौलत है। बड़े-में-बड़ा वह सत्यस्वरूप ईश्वर है, परमात्मा है, गॉड है, अल्लाह है । उसके नाते आप अमानी रहें, दूसरे को मान दें ।
अपने दुःख में रोनेवाले ! मुस्कराना सीख ले ।
औरों के दुःख-दर्द में, तू काम आना सीख ले ।।
आप खाने में मजा नहीं,
जो औरों को खिलाने में है ।
जिंदगी है चार दिन की,
तू किसीके काम आना सीख ले ।।
अगर किसी व्यक्ति या विश्व को शांति चाहिए तो उसको तीन बातें जरूर जाननी चाहिए :
(1) मौत जरूर आयेगी - कभी भी और कहीं भी आ सकती है । इससे अनाप-शनाप के तनाव, शोषण और दूसरों की टाँग खींचकर बड़ा होने की जो धृष्टता है, वह मिट जायेगी । सबको एक साथ उन्नत होने में आनंद आयेगा । मौत आयेगी यह मानते हैं लेकिन जानते नहीं हैं । साँप काटता है तो जहर चढ़ता है और मर जाते हैं, यह जानते हैं तो जैसे ही साँप निकट आने लगता है, उसी वक्त छलाँग मारकर दूर हो जाते हैं । इसी ढंग से हम जानें कि मौत आयेगी जरूर, कभी भी कहीं भी आ सकती है । इससे हमारा मोह, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष सब क्षीण होने लगेंगे ।
(2) 20-25 साल का समय देकर हमने मकान, चीजें, जेवर आदि सारी दुनिया का जो कुछ एकत्र किया, वह सब-का-सब हम दे दें तो 25 महीने भी अपना आयुष्य नहीं बढ़ा सकते हैं । हमारा समय सबसे अधिक कीमती है । जो अधिक-से-अधिक कीमती है, उसे अधिक-से-अधिक कीमती आत्मा-परमात्मा के लिए भी कुछ लगाना चाहिए। इस बात को हर नर-नारी समझे तो बहुत मंगल हो जायेगा ।
(3) जैसे धरती में हर किस्म के रस छुपे हैं, ऐसे ही मनुष्य के अंतःकरण में हर किस्म की योग्यताएँ छुपी हैं । योग्यताएँ छुपी हैं तो दोष भी छुपे हैं, ईर्ष्या-द्वेष, शुभ-अशुभ भी छुपा है तो हम अच्छा संग, सत्पुरुषों का सान्निध्य और अच्छे शास्त्रों का अवलोकन करके अपने शुभ को इतना बढ़ायें, इतना विकसित करें कि अशुभ पनपने न पाये ।
मेटत कठिन कुअंक भाल के ।
अपने भाल के अथवा हृदय के जो कुअंक हैं, कुसंस्कार हैं, उनको विकसित न होने दें और सुसंस्कारों को इतना फैलायें कि हम तो खुश रहें, हमारे सम्पर्क में आनेवाले को भी सुख-शांति और आनंद की कुछ-न-कुछ तरंगें मिलें । ऐसा हम लोग अपने-अपने कर्तव्य के पालन से अगर लग जायें तो विश्वशांति तो सहज, सुलभ है ।’’               
REF: ISSUE268-APRIL-2015