Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अयोध्या में श्रीराम मंदिर उद्घाटन के अवसर पर करें रामजी के आदर्श चरित्र का अमृतपान

केवल भारत की धरा ही नहीं अपितु व्यापक जनसमाज के हृदयों पर भी राज करनेवाले एवं समस्त विश्व को अपने आचार-व्यवहार, जीवन व विचारों द्वारा आदर्श जीवन-पद्धति की सुंदर शिक्षा देनेवाले भगवान श्रीरामचन्द्रजी का आदर्श चरित्र जनमानस के लिए युगों से अविस्मरणीय रहा है और आगे भी सदैव अविस्मरणीय रहेगा । लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद श्रीरामजी के जन्मस्थान अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्मित हुआ है । उसके उद्घाटन के अवसर पर जानते हैं रामजी के सद्गुणों एवं आदर्श जीवन के बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत से :
सबके आदर्श श्रीराम रामावतार को लाखों वर्ष हो गये लेकिन श्रीरामजी अब भी जनमानस से विलुप्त नहीं हुए । क्यों ? क्योंकि श्रीरामजी का आदर्श जीवन हर मनुष्य के लिए अनुकरणीय है । रामायण में वर्णित यह आदर्श चरित्र विश्वसाहित्य में मिलना दुर्लभ है ।
एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श शिष्य, आदर्श श्रोता, आदर्श  वक्ता, आदर्श योद्धा, आदर्श राजा के रूप में यदि किसीका नाम लेना हो तो भगवान श्रीरामचन्द्रजी का ही नाम सबकी जुबान पर आता है । रामराज्य की महिमा आज लाखों-लाखों वर्षों के बाद भी गायी जाती है ।
भगवान श्रीरामजी के सद्गुण ऐसे तो विलक्षण थे कि पृथ्वी के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और जाति के लोग उन सद्गुणों को अपनाकर लाभान्वित हो सकते हैं ।
आदर्श पुत्र देखना हो तो श्रीरामजी हैं । राज्याभिषेक करते-करते पिता ने वनवास दिया तो उसे भी श्रीरामजी ने सहर्ष स्वीकार किया । श्रीराम के वनवास का मुख्य कारण - मंथरा के लिए भी श्रीराम के हृदय में विशाल प्रेम है । रामायण का कोई भी पात्र तुच्छ नहीं है, हेय नहीं है । श्रीराम की दृष्टि में तो रीछ और बंदर भी तुच्छ नहीं हैं । जाम्बवंत, हनुमान, सुग्रीव, अंगद आदि सेवक भी उन्हें उतने ही प्रिय हैं जितने भरत, शत्रुघ्न, लखन और सीताजी । माँ कौसल्या एवं सुमित्रा जितनी प्रिय हैं उतनी ही शबरी श्रीराम को प्यारी लगती है ।
आदर्श शिष्य, आदर्श गुरुभक्त देखना हो तो श्रीरामजी को देखो :
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा ।
मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ।।
(रामचरित. बा.कां. : 204.4, 226)
गुरु-आश्रम में रामजी गायें चराने जाते हैं, बुहारी करते हैं, अतिथियों की सेवा करते हैं, उनका स्नेह से सम्मान करते हैं । उनके जैसा आदर्श सेवक मिलना दुर्लभ है ।
आदर्श भ्राता देखना हो तो श्रीराम हैं । राज्य का अधिकार रामजी का था फिर भी ‘भरत को राज्य मिलेगा’ यह सुनकर श्रीराम अत्यंत हर्षित होते हैं और लक्ष्मण को शक्तिबाण लग जाने पर अत्यंत कारुणिक विलाप करते हैं । बाल्यकाल में खेल-खेल में भी श्रीराम ने स्वयं हार स्वीकार कर भरत को जिताया है । कैसा आदर्श है उनका भ्रातृप्रेम !
आदर्श पति देखना हो तो श्रीरामजी हैं । पत्नी के विरह में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं । वृक्षों, लताओं से अपनी प्रिया सीता का पता पूछ रहे हैं और सीता की खोज में यत्र-तत्र-सर्वत्र वानरों को भेज रहे हैं । अंदर से निर्लेप होते हुए भी लोकाचार-अनुरूप बाहरी सब कर्तव्य उत्तम ढंग से निभा रहे हैं ।
वनवास के बाद जब सीताजी वाल्मीकिजी के आश्रम में थीं तब श्रीरामजी को यज्ञ करना था । बिना पत्नी के यज्ञ नहीं हो सकता था तो श्रीरामजी ने दूसरा विवाह नहीं किया । गुरु वसिष्ठजी की सहमति से उन्होंने सीताजी की सुवर्ण की मूर्ति बनवायी और यज्ञ की विधि पूरी की ।
शत्रु भी जिनका गुणगान किये बिना नहीं रह सकते ऐसे आदर्श योद्धा हैं श्रीरामचन्द्रजी ! रणभूमि में आखिरी श्वास गिनता हुआ रावण जब संसार से अलविदा हो रहा था तब श्रीरामचन्द्रजी अपने शिविर में अश्रुपूरित नेत्रों से शोकमग्न बैठे हुए थे । लक्ष्मणजी ने आकर पूछा : ‘‘भैया ! हमें विजय प्राप्त हुई है फिर भी आपकी आँखें गीली क्यों हैं ?’’
श्रीराम कहते हैं : ‘‘लखन ! आज धरती से एक महान योद्धा रावण जा रहा है ।’’
हे राम ! कैसा है आपका हृदय !
लक्ष्मणजी : ‘‘हे प्रभु ! यह क्या कह रहे हैं माँ सीता का अपहरण करनेवाले के लिए ! इतने-इतने मौके दिये सुधरने एवं समझौते के फिर भी एक भी बात न माननेवाले उस नराधम के लिए आप रो रहे हैं ?’’
रामजी कहते हैं : ‘‘परनारी-हरण के उस दोष के अतिरिक्त लंकेश में बहुत सारे गुण भी थे । लखन ! आज इस धरती से एक पंडित, विद्वान, शिवभक्त और एक महान योद्धा लंकाधिपति रावण प्रयाण कर रहा है ।’’
लक्ष्मणजी चकित हो गये और भागे रणभूमि की ओर जहाँ रावण भूमि पर पड़ा आखिरी साँसें गिन रहा है । उसके पास जाकर बोले : ‘‘हे लंकेश ! श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारी विदाई में आँसू बहा रहे हैं ।’’
लक्ष्मणजी को था कि रावण श्रीराम की महिमा को नहीं जानता लेकिन वह जानता था । रावण का पुराना नाता था श्रीराम से और श्रीराम का अनादि काल से नाता है प्राणिमात्र से । सबके आत्मस्वरूप श्रीराम ही हैं ।
लक्ष्मणजी की बात सुनकर रावण छिन्न-भिन्न हुए तन से, कटी भुजाओं से जैसे-तैसे हाथ जोड़ता है और पलकें झुका के टूटी-फूटी वाणी में कहता है : ‘‘तभी तो वे... श्रीराम... हैं । मेरा... श्रीराम... को... बार... बार... प्र...णा...म... है... !’’
जिन श्रीराम के तीरों से लंकेश छिन्न-भिन्न हुआ है, जिन श्रीराम के सेवक ने लंका में आग लगायी है, उन श्रीराम के लिए रावण के हृदय में कितना आदर है ! कैसे रहे होंगे रामायण के वे राम !
आदर्श राजा देखना हो तो श्रीराम हैं । प्रजा के संतोष व विश्वास-सम्पादन के लिए श्रीरामजी राज्यसुख, राज्यवैभव और गृहस्थसुख का त्याग करने में भी संकोच नहीं करते थे । इसीलिए श्रीरामजी का राज्य आदर्श राज्य माना जाता है ।
श्रीरामजी धन के उपार्जन में भी कुशल थे और उपयोग में भी । जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि पहुँचाये बिना उनसे परागकण व पुष्प-रस ले लेती है ऐसे ही राज्य चलाने के लिए श्रीरामजी प्रजा से ऐसे ढंग से कर (टैक्स) लेते कि प्रजा पर बोझ नहीं पड़ता था । वे प्रजा के हित का चिंतन तथा उसके भविष्य का सोच-विचार करके ही कर लेते थे तथा कर का धन अपने उपभोग के लिए नहीं वरन् प्रजा की सेवा में उपयोग के लिए ही व्यय हो इसका ध्यान रखते थे ।
कोई सौ-सौ गलतियाँ करता है फिर भी भीतर से श्रीरामजी उसके प्रति घृणा नहीं रखते और किसीके पास केवल एक सद्गुण ही हो तो भी श्रीरामजी उसको भूलते नहीं हैं ।
यहाँ तक कि तपस्वी, यति और योगियों के लिए भी श्रीराम आदर्श हैं । आदर्श श्रोता भी श्रीराम ही हैं । गुरु वसिष्ठजी के श्रीचरणों में विनम्र भाव से बैठ के सत्संग-श्रवण करते हैं और कहते हैं :‘‘हे भगवन् ! आपके अमृतरूपी वचनों को सुनकर मेरा जी नहीं भरा । जैसे चकोर चन्द्रमा को देखकर किरणों से तृप्त नहीं होता वैसे ही आपके अमृतरूपी वचनों से मैं तृप्त नहीं होता ।’’
...और आदर्श वक्ता देखना हो तो वे भी श्रीराम ही हैं । रामजी जब बोलते हैं, मधुर, सारगर्भित, सांत्वनाप्रद बोलते हैं, आप अमानी हो के दूसरों को मान देकर बोलते हैं । विनम्रता की मूर्ति देखनी हो तो श्रीरामचन्द्रजी हैं । परशुरामजी खूब क्रोधित होकर बोलते हैं फिर भी श्रीराम बड़ी विनम्रता से कहते हैं : ‘‘मैं दशरथनंदन राम हूँ और आप तो श्री परशुरामजी हैं, महेन्द्र पर्वत पर तप करते हैं । दास राम आपको प्रणाम करता है !’’
श्रीरामजी सारगर्भित बोलते थे । उनसे कोई मिलने आता तो वे यह नहीं सोचते थे कि पहले वह बात शुरू करे या मुझे प्रणाम करे । सामनेवाले को संकोच न हो इसलिए श्रीरामजी अपनी तरफ से ही बात शुरू कर देते थे ।
श्रीरामजी प्रसंगोचित बोलते थे । जब उनके राजदरबार में धर्म की किसी बात पर निर्णय लेते समय दो पक्ष हो जाते थे, तब जो पक्ष उचित होता श्रीरामजी उसके समर्थन में इतिहास, पुराण और पूर्वजों के निर्णय उदाहरणरूप में कहते, जिससे अनुचित बात का समर्थन करनेवाले पक्ष को भी लगे कि दूसरे पक्ष की बात सही है ।
श्रीरामजी दूसरों की बात बड़े ध्यान व आदर से सुनते थे । बोलनेवाला जब तक अपने और औरों के अहित की बात नहीं कहता तब तक वे उसकी बात सुन लेते थे । जब वह किसीकी निंदा आदि की बात करता तब देखते कि इससे इसका अहित होगा या इसके चित्त का क्षोभ बढ़ जायेगा या किसी दूसरे की हानि होगी, तब वे सामनेवाले की बातों को सुनते-सुनते इस ढंग से बात मोड़ देते कि बोलनेवाले का अपमान नहीं होता था ।
श्रीरामजी तो शत्रुओं के प्रति भी कटु वचन नहीं बोलते थे । युद्ध के मैदान में श्रीरामजी एक बाण से रावण के रथ को जला देते, दूसरा बाण मारकर उसके हथियार उड़ा देते फिर भी उनका चित्त शांत और सम रहता था । वे रावण से कहते : ‘‘लंकेश ! जाओ, फिर तैयार होकर आना ।’’
युद्ध करते-करते काफी समय बीत गया तो देवताओं को चिंता हुई कि रामजी को क्रोध नहीं आता है, वे तो समता-साम्राज्य में स्थिर हैं, फिर रावण का नाश कैसे होगा ? लक्ष्मणजी, हनुमानजी आदि को भी चिंता हुई, तब दोनों ने मिलकर प्रार्थना की : ‘‘प्रभु ! थोड़े कोपायमान होइये ।’’
तब श्रीरामजी ने क्रोध का आवाहन किया : क्रोधं आवाहयामि । ‘क्रोध ! अब आ जा ।’
श्रीरामजी क्रोध का उपयोग तो करते थे किंतु क्रोध के हाथों में नहीं आते थे । अज्ञानी लोगों को क्रोध आता है तो क्रोधी हो जाते हैं, लोभ आता है तो लोभी हो जाते हैं, मोह आता है तो मोही हो जाते हैं, शोक आता है तो शोकातुर हो जाते हैं लेकिन श्रीरामजी को जिस समय जिस साधन की आवश्यकता होती थी, वे उसका उपयोग कर लेते थे ।
श्रीरामजी का अपने मन पर बड़ा विलक्षण नियंत्रण था । चाहे कोई सौ अपराध कर दे फिर भी रामजी अपने चित्त को क्षुब्ध नहीं होने देते थे । सामनेवाला व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है, अपने ढंग से जीता है, अतः वह आपके साथ अनुचित व्यवहार कर सकता है परंतु उसके ऐसे व्यवहार से अशांत होना-न होना आपके हाथ की बात है । यह जरूरी नहीं है कि सब लोग आपके मन के अनुरूप ही जियें ।
श्रीरामजी स्थितप्रज्ञ हैं, जीवन्मुक्त हैं, साक्षीस्वरूप हैं । वे कभी सुखी नहीं होते और कभी दुःखी नहीं होते वरन् सदैव सुख और दुःख के साक्षी रहते हैं । भगवान श्रीराम का पावन चरित्र मानवमात्र के लिए आदर्श है । उसका वाचन, श्रवण, मनन करके अपने जीवन को भी आनंद-माधुर्यमय, अपने और दूसरों के लिए सुख-शांतिमय बना लेने का अधिकार मानवमात्र को है । आपका सर्व प्रकार से मंगल हो यही तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के अवतार का उद्देश्य है । ॐ राम... ॐ माधुर्य... ॐ शांति...    
REF: ISSUE373-JANUARY-2024