Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

आचार-विचार हैं सुख के दाता

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

श्री योगवासिष्ठ महारामायण में आता है : जिस पुरुष का यथाक्रम1 और यथाशास्त्र आचार व निश्चय है, उसकी भोग की तृष्णा निवृत्त हो जाती है और उस पुरुष के गुणों का गान आकाश में विचरण करनेवाले सिद्धपुरुष, देवता और अप्सराएँ भी करती हैं ।

मनुष्य यदि शास्त्रों व महापुरुषों के अनुसार आचार-विचार का पालन करे तो अधिकतर बीमार ही न हो । आचार-विचार क्या है ?

शरीर जो कार्य करता है उसको आचारकहते हैं और बुद्धि के कार्य को विचारकहते हैं । न खाने जैसा खा लिया, न करने जैसा कर लिया तो समझो उलटा आचार किया और न सोचने जैसा सोचा तो समझो उलटा विचार किया । अगर आचार-विचार दोनों ठीक हों तो मनुष्य सुखी हो जाता है ।

मैं बीमार हूँ... दवा असर करेगी कि नहीं ?’ ऐसा सोचने से दवा क्या असर करेगी ? तुम्हारी भावना दृढ़ होनी चाहिए, मजबूत होनी चाहिए फिर दवाई तो क्या, पानी या प्रसाद भी दवाई का काम करेगा । मैं बीमार हूँ... मैं दुःखी हूँ... दुनिया में मेरा कोई नहीं है... क्या करूँ ?’ ऐसा करके जो रोते हैं वे हीनभाव से रोते हैं । हीनभाववाले के दिल में ज्ञान की बात क्या बैठेगी ? श्रद्धा कैसे होगी ? रोने से दुःख मिट जाता हो तो खूब रोओ... । लेकिन रोने से तुम्हारी आत्मशक्ति, रोगप्रतिकारक शक्ति क्षीण हो जाती है । फिर आशीर्वाद भी क्या करेगा ? ईश्वर उन्हींको मदद करते हैं जो अपनी मदद आप करते हैं ।

हिम्मते बंदा तो मददे खुदा ।

बेहिम्मत बंदा तो बेजार2 खुदा ।।

अतः सदैव उचित आचार-विचार का पालन करना चाहिए । जो शास्त्रानुसार आचार-विचार का पालन करता है, उसकी भोग की तृष्णा निवृत्त हो जाती है और जिसकी भोग की तृष्णा निवृत्त हो गयी उसे तन के रोग तो क्या, मन के रोग भी नहीं सता सकते हैं । उसकी महिमा तो आकाशचारी सिद्ध तक गाते हैं । वह ऐसा महिमावान हो जाता है ! 

 

REF: ISSUE332-AUGUST-2020