Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

जीव और शिव में क्या फर्क ?

एक कोई गृहस्थ वेदांती थे । उन्हें ‘संत’ कह देंगे क्योंकि उनके मन की वासनाएँ शांत हो गयी थीं अथवा ‘चाचा’ भी कह दो । वे चाचा सब्जी लेने गये थे । पीछे से कोई जिज्ञासु एक प्रश्न पूछने उनके घर पहुँचा । ‘ज्ञानी और अज्ञानी में क्या फर्क होता है ?’ - यह पूछना था उसको । वह जिज्ञासु पलंग पर टाँग-पर-टाँग चढ़ाकर सेठ हो के बैठा था ।

जब वे चाचा घर आये तो उनसे पूछता है : ‘‘टोपनदास ! आप मुझे बताओ कि ईश्वर में और जीव में क्या फर्क है ? ज्ञानी में और अज्ञानी में क्या फासला है ? जीवात्मा और परमात्मा में क्या फासला है ? ब्रह्मवेत्ता और जगतवेत्ता में क्या फासला है ?’’

उस ज्ञानी ने सीधा जवाब न देते हुए देखा कि ‘यह भाषा ऐसी बोलता है कि बड़ा विद्वान है ! अब इससे विद्वत्ता से काम नहीं चलेगा, प्रयोग करके दिखाने से काम चलेगा ।’ उन्होंने सीधा जवाब न देते हुए अपने नौकर को खूब डाँटा । महाराज... जब नौकर को डाँटा तो उसकी पैंट गीली हो गयी । जीव का स्वभाव होता है भय । जो पलंग पर बैठा था न, वह आदमी उतरकर नीचे हाथ जोड़ के बैठ गया और सिकुड़ गया । टोपनदास सिंहासन पर बैठ के बोलते हैं : ‘‘(अपनी ओर इशारा करके) इसका नाम है ‘ब्रह्म’ और (उस आदमी की ओर इशारा करते हुए) उसका नाम है ‘जीव’ । इसका नाम है ‘शिव’ और उसका नाम है ‘जीव’ ।’’

उस आदमी ने घबराकर पूछा : ‘‘यह कैसे ? जैसे आपके हाथ-पैर हैं, ऐसे हमारे हैं...’’

बोले : ‘‘यह ठीक है लेकिन परिस्थितियों से जो भयभीत हो जाय वह जीव है और परिस्थितियों में जो अडिग रहे उसका नाम शिव है ।’’

धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति ।

हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति ।।

‘स्थितप्रज्ञ (धीर पुरुष) न संसार के प्रति द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है । हर्ष और शोक से मुक्त वह न तो मृत है, न जीवित ।’       (अष्टावक्र गीता : १८.८३)

तुम्हारे मारने से वह मरता नहीं और तुम्हारे जिलाने से वह जीता नहीं, तुम्हारी प्रशंसा करने से वह बढ़ता नहीं और तुम्हारे द्वारा निंदा से वह उतरता नहीं । उसका नाम है ‘ब्रह्मवेत्ता’ ।

न दिल में द्वेष धारे थो, न कंहिं सां रीस आ उन जी.

(न दिल में द्वेष धरते हैं, न किसीसे बराबरी करते हैं ।)

न कंहिं दुनिया जी हालत जी,

करे फरियाद थो ज्ञानी.

(न किसी दुनिया की हालत की फरियाद करते हैं ।)

छो गूंगो आहे ? न न. बोड़ो आहे ? न.

चरियो आहे ? ज़रा बि न. पोइ छो ?

(क्यों गूँगे हैं ? ना । बहरे हैं ? ना । पागल हैं ? ज़रा भी नहीं । फिर क्यों ?)

बहारी बाग़ जे वांगुर रहे दिलशाद थो ज्ञानी.

रही लोदनि में लोदनि खां रहे आज़ाद थो ज्ञानी.

(बहारों के बाग की तरह ज्ञानी दिलशाद रहते हैं, झंझावात में रहते हुए भी उनसे आजाद रहते हैं अर्थात् उतार-चढ़ाव में दोलायमान नहीं होते ।)

झूलों में रहते हुए, संसार के आघात और प्रत्याघातों में रहते हुए भी उनके चित्त में कभी भी क्षोभ नहीं होता क्योंकि वे समझते हैं :

यदिदं मनसा वाचा चक्षुभ्र्यां श्रवणादिभिः ।

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् Ÿ।।

‘इस जगत में जो कुछ मन से सोचा, वाणी से कहा, आँखों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है, सपने की तरह मन का विलास है । इसलिए मायामात्र है, मिथ्या है - ऐसा समझ लो ।’ (श्रीमद्भागवत : ११.७.७)