- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
‘जो लोग अभेद दृष्टि से मेरा चिंतन करते हुए सब ओर मेरी उपासना करते हैं, निरंतर आदरपूर्वक मेरे ध्यान (चिंतन) में लगे हुए उन पुरुषों के योगक्षेम का मैं वहन करता हूँ ।’ (गीता : 9.22)
तुम्हारा चित्त जैसा चिंतन करता है, परमात्मा की सत्ता पाकर उसी आकृति का हो जाता है । ब्रह्म का चिंतन करनेवाला चित्त ब्रह्म हो जाता है । जीवत्व का चिंतन करने से चित्त जीव हो जाता है । दुःख का चिंतन करने से चित्त दुःखी हो जाता है । शत्रु का चिंतन करने से चित्त में शत्रुता बढ़ जाती है । मित्रों का चिंतन करने से चित्त में मित्रता आ जाती है । तो प्रभु का चिंतन करने से चित्त में प्रभुत्व आ जाय इसमें आश्चर्य ही क्या है !
हम ऐसी जगह पर बैठते जहाँ कोई सुविधा नहीं होती फिर भी अपने-आप खाने की, रहने की सुविधा हो जाती । हमारे पास जो पैसे थे, फेंक दिये और फिर ‘देखें क्या होता है ?’ ऐसा सोच के रेलगाड़ी में बिना टिकट के बैठ गये और बैठे भी ऐसे डिब्बे में कि जहाँ आरक्षण - टू टायर या थ्री टायर था । टीटी ने आ के सबके टिकट देखे, फिर हमारी ओर देखा, हमने उसकी ओर देखा तो प्रणाम करके लौट गया । हमने कहा : ‘वाह जी ! योगक्षेमं वहाम्यहम् ।’
फिर देखा कि ‘इधर कोई अपमान नहीं करता है । देखें मान-अपमान की चोट लगती है कि नहीं ।’ फिर सेकंड क्लास में जा के बैठे । बड़ी भीड़ थी । टीटी आया, बोला : ‘‘महाराज ! थर्ड क्लास अच्छा नहीं लगा जो यहाँ आ के बैठे... ।’’
मैंने कहा : ‘‘हाँ, ऐसे ही विचार... ।’’
‘‘कहाँ जाओगे ?’’
हरिद्वार से आ रहे थे, नर्मदा के निकट जाना था । चाहते तो टिकट लेकर भी बैठते, हो सकता था लेकिन हाथ फैलाना भी नहीं था और जो कुछ था वह भी बाँट-बूँट के हमने कहा अब यह प्रयोग करो ।
वह बैठा, बोला : ‘‘कहाँ तक चलोगे ऐसे ?’’ कहा : ‘‘अहमदाबाद जाऊँगा ।’’ बोला : ‘‘अच्छा-अच्छा... ।’’ दिखता था खतरनाक-सा, व्यंग्यात्मक पहले तो लेकिन फिर थोड़ी देर में ही उसका व्यवहार बदल गया ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां... योगक्षेमं वहाम्यहम्...
इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हारे से टीटी टिकट न माँगे या न पूछे या तुम बिना टिकट के यात्रा पूरी कर लो और समझ लो कि ‘अनन्य भक्ति हो गयी...’ - ऐसा न समझना । बिना टिकट के गाड़ी में बैठना या यात्रा करना उचित नहीं है । लेकिन उस समय ऐसा कुछ भाव आ गया, हमने कर लिया, तुम लोग प्रयोग न करना ।
फिर नर्मदा-किनारे भी खाने-पीने का जो था वह नदी में फेंककर देखा, और जगह पर फेंक के देखा, अकेले में बैठ के देखा, अपने-आप सब व्यवस्था हो जाती थी । और ऐसे छोटे-मोटे तो कई प्रसंग हो जाते थे ।
तू काहे डोलहि प्राणीआ
तुधु राखैगा सरजणहारु ।
जिनि पैदाइसि तू कीआ सोई देइ आधारु ।।
जिनि उपाई मेदनी सोई करदा सार ।
(अर्थात् हे प्राणी ! तू क्यों घबराता है ? वह सर्जक प्रभु तेरी रक्षा करेगा । जिसने तुझे उत्पन्न किया है, वही तुझे और सारी सृष्टि को आश्रय देता है । जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है, वही देखभाल भी करता है ।)
शरीर की तो सेवा-टहल वह प्रकृति करेगी, व्यष्टि (जीवात्मा) की सँभाल समष्टि (परमात्मा) लेगी । तुम तीन दिन एक जगह पर बैठ जाओ भूखे-प्यासे, फिर देखो कैसे समष्टि को चिंता होती है । तुम्हारा व्यष्टि प्राण है और वह समष्टि प्राण है । समष्टि प्राण व्यापक है, वह व्यष्टि प्राण की सेवा, सँभाल, सहयोग किये बिना नहीं रह सकता ।
...तो निश्चिंतता का जीवन आ सकता है
तो साधक को उचित है कि इस मार्ग में पैर रख दे, अनन्य भाव से परमात्मा की तरफ चल पड़े फिर ‘पत्नी-बच्चों का क्या होगा, मकान-दुकान का क्या होगा, यार-दोस्तों का क्या होगा ?...’ - ये जब नीचे के व्यवहार के विचार आते हैं, पीछे मुड़ने के विचार आते हैं न, वे व्यक्ति को थका देते हैं, तंग कर देते हैं । वह देगा, जरूर देगा । वह खबर लेगा । कोई कहे, ‘मैं घर छोड़ के जाऊँ, पत्नी का क्या होगा ?...’ अरे तुम्हारा कल्याण होगा तो वह अर्धांगिनी है, उसका अपने-आप कल्याण होगा । तुम विराट की यात्रा करोगे, तुम्हारी विराट से एकता होगी या समझो अधूरी ही रह गयी यात्रा तो जितना कुछ चल सके हो उतना लाभ तो होता ही है और कुटुम्ब का भी उत्थान होगा क्योंकि सब एक ही सत्ता बरत रही है ।
‘इतना पूरा कर दूँ, इतना कर जाऊँ, इतना ऐसा करूँ फिर शिविर या सत्संग में जाऊँगा... बाद में साधन करेंगे, बाद में फुरसत से बैठूँगा.. ’ ऐसा सोचोगे तो कभी फुरसत होनेवाली नहीं है । ‘लड़के की परीक्षा चल रही है, जरा उसको ठीक-ठाक करके आऊँ... ।’ अरे तुम अपना ठीक कर लो, लड़कों का, लड़कों के बाप का अपने-आप ठीक हो जायेगा । भगवान पक्की जिम्मेदारी लेते हैं । ऐरे-गैरे नत्थू खैरे की जिम्मेदारी तुम मान लेते हो, परमात्मा की जिम्मेदारी पर ध्यान नहीं देते हो । यदि कृष्ण के वचनों पर भरोसा आ जाय तो निश्चिंतता का जीवन आ सकता है ।
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ।
चाहे हजारों-लाखों सांसारिक चतुराइयाँ हों तो भी परमात्मप्राप्ति में उनमें से एक भी सहायक नहीं होती । इसलिए जो अत्यंत जरूरी है वह कर डालो और जो बिनजरूरी है, थोड़ा जरूरी है वह फेंक दो श्रीचरणों में । यह भी आखिरी बात नहीं, आखिरी बात तो यह है कि अत्यंत और बेअत्यंत - सब फेंक दो श्रीचरणों में और मस्त हो जाओ, ध्यान लगेगा, गहरा ध्यान होगा । न हो तो टाइम बैक गारंटी !
Ref: ISSUE316-APRIL-2019