Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

विश्वात्मा के साथ एकत्व करानेवाला अत्यंत उपयोगी साधन

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि जब भगवान नारायण के नाभिकमल से ब्रह्माजी का प्राकट्य हुआ तब ब्रह्माजी दिङ्मूढ़1 की स्थिति में पड़ गये । वे समझ नहीं पा रहे थे कि मेरा प्रादुर्भाव (प्राकट्य) क्यों हुआ ? मुझे क्या करना है ?’ तभी आकाशवाणी हुई : तप कर... तप कर...

तत्पश्चात् ब्रह्माजी समाधि में स्थित हुए । उससे सामर्थ्य प्राप्त करके उन्होंने अपने संकल्प से इस सृष्टि की रचना की । अर्थात् हमारी सृष्टि की उत्पत्ति ही तप से हुई है । इसका मूल स्थान तप है ।

वास्तविक कल्याण में

सबसे बड़ी बाधा और उसका निर्मूलन

हमारे सत्शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप बताये गये हैं । उनमें से एक महत्त्वपूर्ण तप है निष्काम कर्म, सेवा, परोपकार । इसी तप को भगवान ने गीता में कर्मयोगकहा तथा ज्ञान, भक्ति और योग की भाँति इस साधना को भी भगवत्प्राप्ति, मोक्षप्राप्ति में समर्थ बताया ।

व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के प्रति तो उदार रहता है परंतु दूसरों की उपेक्षा करता है । वह स्वयं को दूसरों से भिन्न मानता है । इसीका नाम अज्ञान, माया है । जन्म-मरण का, शोक-कष्ट का, उत्पीड़न व भ्रष्टाचार आदि पापों का यही मूल कारण है । भेदभाव और द्वेष ही मृत्यु है तथा अभेद भाव, अनेकता में एकता, सबमें एक को देखना, सबकी उन्नति चाहना ही जीवन है ।

समस्त बुराइयों का मूल है स्वार्थ और स्वार्थ अज्ञान से पैदा होता है । स्वार्थी मनुष्य जीवन की वास्तविक उन्नति एवं ईश्वरीय शांति से बहुत दूर होता है । न तो उसमें श्रेष्ठ समझ होती है और न ही उत्तम चरित्र । वह धन और प्रतिष्ठा पाने की ही योजनाएँ बनाया करता है ।

मनुष्य के वास्तविक कल्याण में स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा है । इस बाधा को निःस्वार्थ सेवा एवं सत्संग के द्वारा निर्मूल किया जाता है । स्वार्थ में यह दुर्गुण है कि वह मन को संकीर्ण तथा हृदय को संकुचित बना देता है । जब तक हृदय में मैंऔर मेरेकी लघु ग्रंथि होती है तब तक सर्वव्यापक सत्ता की असीम सुख-शांति नहीं मिलती और हम अद्भुत, पवित्र प्रेरणा प्राप्त नहीं कर पाते । इन्हें पाने के लिए हृदय का व्यापक होना आवश्यक है । इसमें निःस्वार्थ सेवा एक अत्यंत उपयोगी साधन है ।

परम लक्ष्यप्राप्ति हेतु पहली सीढ़ी

निष्काम कर्म जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है । इसके अभ्यास से चित्त की शुद्धि होती है तथा भेदभाव मिटता है । सबमें ईश्वर की भावना दृढ़ होते ही अहंकी लघु ग्रंथि टूट जाती है और सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता से जीव का एकत्व हो जाता है । भगवद्भाव से सबकी सेवा करना यह एक बहुत बड़ा तप है ।

ईशावास्योपनिषद् में आता है :

ईशा वास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।

अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ भी जड़-चेतनरूप जगत है वह समस्त ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए (सदा-सर्वदा ईश्वर का स्मरण करते हुए) इसे त्यागपूर्वक भोगो (अर्थात् त्यागभाव से केवल कर्तव्यपालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपयोग करो) । किसी भी धन अथवा भोग्य पदार्थ में आसक्त मत होओ क्योंकि यह किसका है ? अर्थात् किसीका भी नहीं ।

यहाँ पर त्यागपहले है और भोगबाद में । यदि व्यक्ति अपने परिवार में ही आसक्त रहे तो वह विश्वप्रेम विकसित नहीं कर सकेगा, विश्वभ्रातृत्व नहीं पनपा सकेगा । सभीके बच्चे अपने बच्चों के समान नहीं लगेंगे । व्यक्ति का प्रेम, जो व्यापक ईश्वर-सत्ता को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है, वह प्रेम नश्वर परिवार के मोह में ही फँसकर रह जायेगा ।

वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !  

परमार्थ को साधने के लिए, कलह, अशांति तथा सामाजिक दोषों को निर्मूल करने के लिए विश्वप्रेम को विकसित करना होगा । संकुचितता को छोड़कर हृदय को फैलाना होगा । सुषुप्त शक्तियों को प्रकट करने का यही सबसे सरल उपाय है ।

जिनका प्रेम विश्वव्यापी हो गया है उनके लिए सभी समान हैं । समस्त ब्रह्मांड उनका घर होता है । उनके पास जो कुछ है, सबके साथ बाँटकर वे उसका उपयोग करते हैं । दूसरों के हित के लिए अपना हित त्याग देते हैं । कितना भव्य व्यक्तित्व है उन महामानव का ! वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !

सरिताएँ सबको ताजा जल दे रही हैं । वृक्ष छाया, फल तथा प्राणवायु दे रहे हैं । सूर्य प्रकाश, ऊर्जा एवं जीवनीशक्ति प्रदान करता है । पृथ्वी सभीको शरण तथा धन-धान्य देती है । पुष्प सुगंध देते हैं । गायें पौष्टिक दूध देती हैं । प्रकृति के मूल में त्याग की भावना निहित है ।

निःस्वार्थ सेवा के द्वारा अद्वैत की भावना पैदा होती है । दुःखियों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखानेवालों से तो दुनिया भरी पड़ी है परंतु जो दुःखी को अपने हिस्से में से दे दें ऐसे कोमलहृदय लोग विरले ही होते हैं ।

...इसीसे मनुष्य-जन्म सार्थक कर सकते हैं

निःस्वार्थ सेवा चित्त के दोषों को दूर करती है, विश्वचैतन्य के साथ एकरूपता की ओर ले जाती है । जिसका चित्त शुद्ध नहीं है, वह भले ही शास्त्रों में पारंगत हो, वेदांत का विद्वान हो, उसे वेदांतिक शांति नहीं मिल सकती ।

सेवा का हेतु क्या है ? चित्त की शुद्धि... अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि कुभावों की निवृत्ति... भेदभाव की समाप्ति । इससे जीवन का दृष्टिकोण एवं कर्मक्षेत्र विशाल होगा, हृदय उदार होगा, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होंगी, विश्वात्मा के प्रति एकता के आनंद की झलकें मिलने लगेंगी । सबमें एक और एक में सब...की अनुभूति होगी । इसी भावना के विकास से राष्ट्रों में एकता आ सकती है, समाजों को जोड़ा जा सकता है, भ्रष्टाचार की विशाल दीवार को गिराया जा सकता है । हृदय की विशालता द्वारा वैश्विक एकता को स्थापित किया जा सकता है तथा अखूट आनंद के असीम राज्य में प्रवेश पाकर मनुष्य-जन्म सार्थक किया जा सकता है ।