(शिक्षक दिवस : 5 सितम्बर)
हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के साथ आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की तुलना करेंगे तो दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई दिखाई पड़ेगी । गुरुकुल में प्रत्येक विद्यार्थी नैतिक शिक्षा प्राप्त करता था । प्राचीन संस्कृति का यह महत्त्वपूर्ण अंग था । प्रत्येक विद्यार्थी में विनम्रता, आत्मसंयम, आज्ञा-पालन, सेवा और त्याग-भावना, सद्व्यवहार, सज्जनता, शिष्टता तथा अंततः बल्कि अत्यंत प्रमुख रूप से आत्मज्ञान की जिज्ञासा रहती थी । आधुनिक प्रणाली में शिक्षा का नैतिक पक्ष सम्पूर्णतः भुला दिया गया है ।
शिक्षकों का कर्तव्य
विद्यार्थियों को सदाचार के मार्ग में प्रशिक्षित करने और उनका चरित्र सही ढंग से मोड़ने में स्कूल तथा कॉलेजों के शिक्षकों और प्रोफेसरों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आती है । उनको स्वयं पूर्ण सदाचारी और पवित्र होना चाहिए । उनमें पूर्णता होनी चाहिए । अन्यथा वैसा ही होगा जैसा एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाये । शिक्षक-वृत्ति अपनाने से पहले प्रत्येक शिक्षक को शिक्षा के प्रति अपनी स्थिति की पूरी जिम्मेदारी जान लेनी चाहिए । केवल शुष्क विषयों को लेकर व्याख्यान देने की कला सीखने से ही काम नहीं चलेगा । यही प्राध्यापक की पूरी योग्यता नहीं है ।
संसार का भावी भाग्य पूर्णतया शिक्षकों और विद्यार्थियों पर निर्भर है । यदि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को ठीक ढंग से सही दिशा में, धार्मिक वृत्ति में शिक्षा दें तो संसार में अच्छे नागरिक, योगी और जीवन्मुक्त भर जायेंगे, जो सर्वत्र प्रकाश, शांति, सुख और आनंद बिखेर देंगे ।
शिक्षको और प्राध्यापको ! जाग उठो । विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य, सदाचार और धार्मिकता की शिक्षा दो । उन्हें सच्चे ब्रह्मचारी बनाओ । इस दिव्य धर्म की अवहेलना न करो । इस पवित्र कार्य के लिए नैतिकता की दृष्टि से तुम्हीं लोग जिम्मेदार हो । यह तुम लोगों का योग है । सच्ची निष्ठा से यदि इस काम को अपने हाथ में लेते हो तो तुम्हें भी आत्मज्ञान प्राप्त होगा । सच्चे रहो, निष्ठावान रहो । आँखें खोलो ।
धन्य है वह, जो वास्तव में अपने विद्यार्थियों को संयमी, सदाचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी बनाने में सफल है । उन पर भगवान का आशीर्वाद रहे । ऐसे शिक्षकों, प्राध्यापकों और विद्यार्थियों की जय हो !