Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

श्रीकृष्ण अवतार का रहस्य

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : 19 अगस्त)

वह सुंदर जहाँ-तहाँ अपना सौंदर्य, वह दयालु जहाँ-तहाँ अपनी दया, वह करुणावरुणालय जहाँ-तहाँ अपनी करुणा फैलाता है, उसीका नाम है कृष्णावतार । भगवान के स्वभाव का अनुसंधान करने से आपको भगवान की करुणा-कृपा, अंतर्यामीपने और प्रेरकपने का चिंतन होगा तथा भगवान की करुणा व उदारता का चिंतन करते रहने से आपके मन में हिम्मत आयेगी ।

न्याय तो यमराज के हवाले है । राजा मृदु स्वभाव का होना चाहिए, सिर्फ दंड देनेवाला राजा या भगवान हमें नहीं चाहिए । भगवान की कितनी करुणा व उदारता है ! पूतना, जो अपने स्तनों पर कालकूट जहर लगा के आयी, उसका जहर पिये जा रहे हैं और उसे मुक्ति का दान दे रहे हैं । शकटासुर, अघासुर, बकासुर हो या फिर केशी, जो भी मारने आये उनको सुखी करने के लिए स्वधाम भेज रहे हैं । ये सिर्फ दंड देनेवाले भगवान नहीं हैं, ये तो दया, प्रेम करनेवाले भगवान हैं । युद्ध के मैदान में गीता का ज्ञान देनेवाले भगवान हैं । दैत्यों को, असुरों को दंड देकर भी माधुर्यलोक में भेजनेवाले भगवान हैं ।

जो चतुर्भुजी मानते हैं उनको चतुर्भुजी, जो द्विभुजी मानते हैं उन्हें द्विभुजी रूप में दिखते हैं और जो आत्मशांत मौनरूप में मानते हैं उन्हें अपने मौनस्वभाव में आनंदित कर देते हैं ।

गीता (7.25) में भगवान ने कहा : योगमायासमावृतः... उस योगमाया से हमारे भगवान कभी भी कोई भी रूप धारण करने में, कभी भी कोई भी लीला करने में सक्षम हैं, अंतर्धान होने में सक्षम हैं । अंतर्प्रेरणा अंतर्यामी भगवान देते हैं । शुभ करो तो हिम्मत बढ़ाते हैं, आनंद देते हैं; अशुभ करो तो हृदय की धड़कनें बढ़ाते हैं और भीतर-ही-भीतर कुछ लानत बरसाते हैं ।

पृथ्वी पर शोषक राजा बढ़ गये, प्रजा त्राहिमाम् पुकारने लगी । दूध, दही, मक्खन, घी पैदा करनेवाले ग्वाल-गोपियाँ और जनसाधारण अपनी मेहनत-मजदूरी के बावजूद भी उन्हें नहीं खा-पी पाते थे, कंस के पहलवानों को देना पड़ता था । अति शोषण हो गया तब वह परात्पर ब्रह्म अष्टमी की मध्यरात्रि को कंस के कारागृह में चतुर्भुजी रूप से प्रकट हुआ और चतुर्भुजी को माँ देवकी व पिता वसुदेव ने प्रार्थना की तो द्विभुजी नन्हे बन गये ।

उन नन्हे कृष्ण-कन्हैया को वसुदेवजी टोकरी में लिये जा रहे हैं । यमुनाजी ने देखा, ‘अपनी योगमाया से सर्वव्यापक इतना नन्हा बन गया । सर्व में समाया हुआ और विशेष फिर यहाँ नन्हा-मुन्ना कृष्ण होकर पिता की टोकरी में मुझ यमुना से पसार हुए जा रहा है । ऐसे परात्पर ब्रह्म के चरण छूने का मौका मैं क्यों चुकूँगी !यमुनाजी उछल-कूद मचाती हुई वसुदेव की ठोड़ी तक पहुँच गयीं । वसुदेवजी घबराये । वसुदेवजी की घबराहट और यमुना के प्यार को समझनेवाले उस परात्पर ब्रह्म ने अपने पैर का अँगूठा यमुनाजी को छुआ दिया, यमुनाजी का जल घटा और वसुदेवजी पहुँचे यशोदा के घर ।

अपनी योगमाया को वहाँ अवतरित होने का आदेश देनेवाले को वहाँ रखकर योगमाया को टोकरी में ले के आये तो जेल की हथकड़ियाँ फिर लग गयीं । जैसे कृष्ण का अवतार हुआ तो हथकड़ियाँ खुल गयीं और माया का सान्निध्य लिया तो हथकड़ियाँ आ गयीं, यह अवसर संदेशा देता है कि ऐसे ही जब जीवात्मा भगवान के इस मायावी शरीर में, मायावी संसार में सुख खोजता है तो बंधन की हथकड़ियाँ पड़ जाती हैं और जब इसका आकर्षण छोड़कर कृष्णमय सुख खोजता है तो हथकड़ियाँ खुल जाती हैं ।

भगवान का स्वरूप है सत्-चित्-आनंद । सृष्टि का विस्तार सत् अंश से, चित् अंश से ज्ञान का प्रचार-प्रसार, विस्तार व धर्म की रक्षा होती है लेकिन आनंद अंश को विस्तृत होने के लिए भगवान की रासलीला चाहिए । आनंद के बिना जीव चुप नहीं बैठेगा । क्रिया से नृत्य और ध्वनि से गीत उत्पन्न होता है तो क्रिया और ध्वनि के मिश्रण से जो रासलीला हुई वह भगवान के आनंदस्वभाव को प्रकटाती है ।

रसो वै सः । इस रासलीला को शास्त्रीय भाषा में भगवान का रस-स्वभाव उद्दीपन करने की लीला भी कहते हैं । रासलीला को नाट्यशास्त्र में हल्लीशक नृत्य कहा है । हल्लीशक नृत्य अर्थात् बीच में नट तो एक हो और इर्द-गिर्द नटियाँ अनेक हों और नट इतनी स्फूर्ति से नृत्य करे कि हर नटी महसूस करे कि नट मेरे साथ ही नृत्य कर रहा है और मेरी ओर ही देख रहा है ।

इस रासलीला के तीन पहलू हैं - पहला, एक नट और सैकड़ों नटियाँ, एक साक्षी चैतन्य और सैकड़ों-सैकड़ों वृत्तियाँ । दूसरा, दो गोपियों के बीच नट हो और दोनों गोपियों के कंधे पर नटराज के हाथ, दोनों को कृष्ण अपने लगते हैं । फिर इतना अपनत्व भाव में आ जाते हैं कि वे गोपियाँ महसूस करती हैं कृष्ण हमारे हैं ।प्रत्येक गोपी के साथ कृष्ण प्रतीत होते हैं अर्थात् साधना की ऐसी अवस्था होती है कि हजारों-लाखों वृत्तियों को देखनेवाला एक, फिर दो वृत्तियों के बीच द्रष्टा एक, फिर सब वृत्तियों के साथ द्रष्टा का चैतन्य-आनंदस्वरूप एकाकार हो रहा है (यह एकाकार होना रासलीला का तीसरा पहलू है) ।

श्रीकृष्ण की लीला सूक्ष्म तत्त्व समझाने के लिए, अपने आनंदस्वरूप को पाने के लिए है ।

कृष्ण खेल रहे हैं । गेंद यमुनाजी में गिर गयी । कृष्ण गेंद लेने कूदे यमुना में । यमुना के गहरे जल में कृष्ण चले जा रहे हैं । वहाँ पहुँचे जहाँ कालिय नाग रहता था और 101 उसके फन थे । ऐसे ही तुम्हारे हृदयरूपी यमुना के गहरे-गहरे में सौ-सौ विकारी गहरी वासनाओं के फन हैं । कृष्ण ने ॐ की ध्वनि सुनाती हुई बंसी बजायी । उस ध्वनि के नाद से वह सर्प मदोन्मत्त हो गया । वह अपना जहरीला स्वभाव भूलकर मानो बेहोश-सा हो गया । श्रीकृष्ण ने उसके एक-एक फन को अपने पैरों की एड़ी दे मारी और नृत्य किया । बंसी बजती जा रही है, एड़ियाँ ठुकती जा रही हैं, फन छिन्न-भिन्न होते जा रहे हैं और धीरे-धीरे वह कालिय नाग वश हुए जा रहा है ।

आश्चर्य यह था कि फन टूट रहे हैं फिर दूसरे बन रहे हैं लेकिन श्रीकृष्ण निराश नहीं होते हैं । वे ॐकार की ध्वनि गुंजाते जाते हैं । ऐसे ही साधक को भी सौ-सौ विकृत वृत्तियों के फन तोड़ते जाना है, फिर वृत्तियाँ उठेंगी तो साधक अपनी साधना का, मंत्र का आश्रय लेता जाय और उन वृत्तियों को दबोचता जाय, खुश रहता जाय तथा मनोमय उत्साह उभारता जाय तो कालिय नागरूपी आसुरी वृत्तियाँ और अहं वश हो जायेगा ।

कालिय नाग वश हुआ, मुख्य फन को श्रीकृष्ण ने नाथ दिया, ऐसे ही मुख्य विकारी वृत्ति को जो नाथ देता है, और फन भी उसके अधीन हो जाते हैं । कालिय नाग अधीन हुआ तो उसकी पत्नियाँ भी दासियाँ बन गयीं अर्थात् मुख्य वृत्ति को ज्ञानरूपी साधन से नाथ दो तो और वृत्तियाँ नथने लगती हैं, फिर गौण वृत्तियाँ भी नथने लगती हैं । जैसे श्रीकृष्ण कालिय को नाथने में सफल हुए, ऐसे ही साधक अंतःकरण की गहराई में जाय, जपरूपी बंसी बजाता रहे और मुख्य दोष को नाथ ले, फिर अन्य दोषों को नाथे तो अवांतर दोष नथ जायेंगे और निर्दोष नारायण का आनंदस्वभाव प्रकट हो जायेगा ।

 

Ref: ISSUE284-AUGUST-2016