पंजाब के होशियारपुर जिले के गढ़शंकर गाँव में भाई तिलकाजी नामक एक सज्जन रहते थे । गुरु हरगोविंदजी ने भाई तिलकाजी को होशियारपुर में गुरुज्ञान के प्रचार-प्रसार की सेवा दी थी । उनके सेवाभाव से नगर के लोग बहुत प्रभावित थे ।
एक तपस्वी तिलकाजी के निवास-स्थल के पास में रहता था । वह तरह-तरह के कठिन तप व क्रियाओं द्वारा सिद्धियाँ पाने में लगा रहता था लेकिन उसके जीवन में किन्हीं ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु का ज्ञान-प्रकाश न होने से असंतोष व राग-द्वेष का घना अँधेरा था । सत्संग, सेवा, सद्गुरु की महिमा से अनजान होने से वह गुरुसेवा, गुरुज्ञान के प्रचार को देखकर ईर्ष्या करता था । धीरे-धीरे उसकी मान्यता लोगों में घटती जा रही थी । एक दिन उसने यह खबर फैलवा दी कि ‘तपस्वी को शक्ति प्राप्त हुई है और वरदान मिला है कि जो उसका दर्शन करेगा वह एक वर्ष तक स्वर्गलोक में रहेगा ।’
यह समाचार सब जगह फैल गया । स्वर्ग पाने के लालची कई लोग उसके पास गये लेकिन विवेकी, सद्गुरु के सत्शिष्यों पर कोई असर नहीं हुआ ।
उस तपस्वी ने भाई तिलकाजी को संदेश भेजा कि वे आकर उसका दर्शन कर लें ताकि उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो ।
तिलकाजी तो पक्के गुरुभक्त थे । उन्होंने उसकी एक न सुनी और अपने गुरु द्वारा बतायी गयी सेवा-साधना में लगे रहे ।
आखिर हारकर वह तपस्वी कुछ लोगों के साथ तिलकाजी को स्वयं दर्शन देने आया । जब तिलकाजी को पता चला तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया ।
तपस्वी दरवाजा खटखटाकर कहने लगा : ‘‘मैं आपके लिए स्वयं चल के आया हूँ, आप मेरे दर्शन करो व स्वर्ग प्राप्त करो ।’’
तिलकाजी ने कहा : ‘‘मेरे गुरुदेव ब्रह्मज्ञानी हैं और ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु की सेवा-साधना और कृपा से शिष्य को जो ज्ञान, भक्ति, आनंद व शांति का प्रसाद मिलता है, उसके आगे स्वर्ग क्या मायने रखता है ! मुझे स्वर्ग की जरूरत नहीं ।’’
सच्चे गुरुभक्त भाई तिलकाजी के उत्तर ने तपस्वी के अंतर्मन को झकझोर दिया । वह सोचने लगा कि ‘ये कैसे शिष्य हैं जो अपने सद्गुरु के ज्ञान को स्वर्ग से भी उत्तम मानते हैं ! जिन महापुरुषों के शिष्यों के जीवन में ऐसी ऊँचाई देखने को मिलती है, वे महापुरुष कितने महान होंगे !’
तपस्वी ने तिलकाजी को गुरु की दुहाई दी और कहा : ‘‘कृपया दरवाजा खोल के आप मुझे दर्शन दीजिये और मुझे भी उन सद्गुरु के दर्शन करवाइये जिनके आप शिष्य हैं ।’’
गुरु की दुहाई सुनते ही भाई तिलकाजी ने तुरंत दरवाजा खोल दिया । उस समय गुरुगद्दी पर गुरु हरगोविंदजी थे । तिलकाजी तपस्वी को लेकर उनके चरणों में पहुँचे । उनका आत्मज्ञान-सम्पन्न सत्संग सुनकर तपस्वी ने धन्यता का अनुभव किया । बाद में वह तपस्वी भी गुरुज्ञान का प्रचार-प्रसार करने की सेवा में लगकर अपना जीवन धन्य करने लगा ।
धन्य हैं ऐसे गुरुभक्त, जिनके लिए ब्रह्मवेत्ता गुरु से बढ़कर दुनिया में स्वर्ग, वैकुंठ कुछ भी नहीं होता । सद्गुरु के ऐसे प्यारे किसीके बहकावे या प्रलोभन में नहीं आते बल्कि अपनी गुरुनिष्ठा, गुरुसेवा व दृढ़ विश्वास द्वारा दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाते हैं ।
Ref: ISSUE318-JUNE-2019