(गुरुपूर्णिमा, व्यासपूर्णिमा : 13 जुलाई)
सद्गुरु को ‘व्यास’ कहा जाता है । ‘व्यास’ का मतलब है जो हमारी बिखरी हुई ऊर्जा अथवा वृत्तियों, आकांक्षाओं या सामर्थ्य को सुव्यवस्थित करें । जैसे सूर्य की किरणें बिखरी हुई हैं तो आतिशी शीशा उनको सुव्यवस्थित करता है और दाहक शक्ति प्रकट कर देता है, ऐसे ही हममें जो योग्यताएँ बिखरी हैं उनको सुव्यवस्थित करके ठीक जगह पर उनका प्रभाव और प्रकाश कराने की व्यवस्था करने की जो क्षमता रखते हैं ऐसे महापुरुष को ‘व्यास’ कहा जाता है ।
एकांत छोड़कर भ्रमण की क्या जरूरत ?
मेरे को किसीने पूछा : ‘‘बाबाजी ! जिसको जरूरत होगी वह घर-बार छोड़ के गिरि-गुफा में संतों के पास जा के शांति पायेगा, संतों को एकांत छोड़ने की क्या आवश्यकता ? हिमालय की गुफा, आबू की गुफा छोड़कर आप इतना घूम रहे हो, यह क्यों ? क्या जरूरत है आपको ?’’
मैंने कहा : ‘‘भाई ! तुम बीमार हो तो क्या करोगे ?’’
बोले : ‘‘डॉक्टर के पास जायेंगे ।’’
मैंने कहा : ‘‘बहुत गम्भीर हालत हो जाय तो ?’’
बोले : ‘‘डॉक्टर को हमारे घर बुलाया जायेगा ।’’
मैंने कहा : ‘‘समाज का मन पहले इतना बीमार नहीं था कि बस, संसार की दलदल में ही पड़ा रहे । पहले दूसरे लोग तो क्या राजा-महाराजा भी घर-बार, राजपाट छोड़ के विरक्त होकर गुरुओं के चरणों में चले जाते थे । मानवी मन पहले विषय-विकारों के रोग से इतना रोगी नहीं था इसलिए लोग समझते थे कि ‘कितना भी मिला, आखिर क्या ?’ ‘यह मनुष्य-जीवन आत्मोद्धार के लिए मिला है, बंधनों से मुक्त होने व विकारों से ऊपर उठने के लिए मिला है ।’ - ऐसा विवेक रहता था । और जीवन की शाम हो जाय उसके पहले जीवनदाता का साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य बड़े-से-बड़ा त्याग कर लेता था । लेकिन अभी तो मन को इतना विषय-विकारों का रोग है कि संतों के पास नहीं जा पाते हैं । कलियुग के दोषों से ग्रस्त लोगों की दयनीय अवस्था से द्रवित हो के उन्हें भगवदीय ज्ञान, आनंद, शांति से तृप्त करने के लिए संत-महापुरुष एकांत, गिरि-गुफाएँ छोड़कर गाँव-गाँव, नगर-नगर और डगर-डगर घूम रहे हैं ।’’
ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति
गुरुपूजन माने ध्येय (परमात्मप्राप्ति) का पूजन । मानव-जात को जब तक सत्यज्ञान की प्रीति बनी रहेगी तब तक गुरुओं का पूजन होता ही रहेगा ।
जब तक जिससे (आत्मतत्त्व से) सीखा जाता है उसको पाने की यात्रा पूरी नहीं हुई, तब तक मनुष्य को जिज्ञासु बने रहना चाहिए । रामकृष्ण परमहंस तो (आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद भी) कहते थे : ‘‘जब तक मैं जीवित हूँ तब तक मैं विद्यार्थी हूँ और सीखता रहूँगा ।’’
पेट भरने की विद्या तो बहुत सीख ली लेकिन दिल को दिलबर के ज्ञान से भरकर मौत के सिर पर पैर रखने की कला सिखाना - यह व्यासपूर्णिमा का उद्देश्य है । और जिन्होंने व्यासदेव के अनुभव को अपना अनुभव बनाया, ऐसे महापुरुष बड़े विलक्षण होते हैं । वे मूर्ख से सीखते हैं और ज्ञानी को पढ़ाने की क्षमता रखते हैं । मच्छर से डरते हैं और शेरों से कुश्ती कर सकते हैं । स्वयं के पास कुछ नहीं और माँगनेवाले को सब कुछ दे सकते हैं । जरूरत पड़ी तो भिक्षा माँगकर खाते हैं और संकल्पमात्र से किसी मोहताज को सम्राट बनाने का सामर्थ्य भी रखते हैं ।
स्वामी विवेकानंद बोलते थे : ‘‘गुरुओं की एक श्रेणी है जो ‘गुरुओं के भी गुरु’ होते हैं - स्वयं भगवान मनुष्य के रूप में आते हैं, जो अपने स्पर्श या इच्छा मात्र से दूसरों के भीतर धार्मिकता एवं पवित्रता का संचार करते हैं, जिससे नितांत अधम व चरित्रहीन मनुष्य भी क्षणभर में साधु बन जाता है । ये मनुष्य को उपलब्ध होनेवाली ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्तियाँ हैं । बिना इन्हें माध्यम बनाये हम भगवान के दर्शन और किसी तरह नहीं कर सकते । हम इनकी पूजा किये बिना नहीं रह सकते ।’’
यह है ज्ञान का आदर !
व्यासपूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा ज्ञान का आदर करने की पूर्णिमा है । ज्ञान माने लोहे-लकड़े, ईंट-चूने का ऐहिक जगत का ज्ञान नहीं बल्कि जिससे सारा जगत संचालित होता है उस परमात्म-तत्त्व का ज्ञान ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
(गीता : 4.34)
श्रीकृष्ण ने कहा : ‘‘भली प्रकार तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों की सेवा करनी चाहिए ।’’
श्री योगवासिष्ठ महारामायण में आता है : ‘‘हे रामजी ! आत्मज्ञानी पुरुष की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए । उनका बड़ा उपकार है । वे संसार-सागर से निकाल लेते हैं ।’’ अब ज्ञानी कहो, व्यास कहो, ब्रह्मज्ञानी कहो, तत्त्वज्ञ कहो, ब्रह्मवेत्ता कहो - एक ही बात है ।
राजा जनक को जब आत्मोपदेश मिला और वे अंतरात्मा में संतुष्ट हुए तो उनका हृदय भर आया । राजा जनक अष्टावक्र मुनि को हाथ जोड़कर कहते हैं : ‘‘महाराज ! आपने तो मुझे शाश्वत का प्रसाद दिया है । मेरे पास देने को क्या है ? मन चंचल है और शरीर व सम्पत्ति नश्वर हैं । मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? फिर भी मैं कृतघ्न न बनूँ इसलिए हे करुणानिधे ! आप मेरा कुछ स्वीकार करिये ।
यह राजपाट मैं आपके चरणों में अर्पण करता हूँ । और मैंने जो तालाब, बावड़ियाँ, कुएँ खुदवाये और उनसे जो भी पुण्य हुआ एवं यश मिला है, वह भी आपको भेंट करता हूँ फिर भी आपके आत्मज्ञान के प्रसाद के आगे ये चीजें तुच्छ हैं... महाराज ! मुझे क्षमा करिये । आप हँसी न करिये और कुपित भी न होइये ।’’
यह है ज्ञान का आदर! - पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
Ref: ISSUE294-JUNE2017