भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन निषिद्ध माना गया है । (वर्ष 2020 में गणेश चतुर्थी 22 अगस्त को है । चन्द्रास्त : रात्रि 9:49) इसी दिन चन्द्र-दर्शन से भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमंतक मणि की चोरी का मिथ्या कलंक लगा था । यदि भूल से भी चौथ का चन्द्रमा दिख जाय तो ‘श्रीमद्भागवत’ के 10वें स्कंध के 56-57वें अध्याय में दी गयी ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का आदरपूर्वक पठन-श्रवण करना चाहिए ।
निम्नलिखित मंत्र का 21, 54 या 108 बार जप करके पवित्र किया हुआ जल पीने से कलंक का प्रभाव कम होता है ।
सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ।।
‘सुंदर, सलोने कुमार ! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है अतः तुम रोओ मत । अब इस स्यमंतक मणि पर तुम्हारा ही अधिकार है ।’
(ब्रह्मवैवर्त पुराण : 78.62-63)
चौथ के चन्द्र-दर्शन से कलंक लगता है । दर्शन हो जाय तो उपरोक्त मंत्र-प्रयोग अथवा तृतीया या पंचमी के चन्द्रमा का दर्शन कर लो और ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का वाचन या श्रवण करो । इससे अच्छी तरह कुप्रभाव मिटता है ।
(ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018 से संकलित)
स्यमंतक मणि की चोरी की कथा
श्री शुकदेवजी कहते हैं : ‘‘परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर झूठा कलंक लगाया था । फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमंतक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी ।’’
राजा परीक्षित ने पूछा : ‘‘भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?’’
श्री शुकदेवजी ने कहा : ‘‘परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था । वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके प्रिय मित्र बन गये थे । सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी । सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो । परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारिका आया, तब अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके । दूर से ही उसे देखकर उसके तेज से लोगों की आँखें चौंधिया गयीं । लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं । उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी । उस समय भगवान श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे । लोगों ने कहा : ‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविंद ! आपको नमस्कार है । जगदीश्वर ! देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डश्म भगवान सूर्य आपके दर्शन करने आ रहे हैं । प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं किंतु उसे पाते नहीं । आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपके दर्शन करने आ रहे हैं ।’’
श्री शुकदेवजी कहते हैं : ‘‘परीक्षित ! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे । उन्होंने कहा : ‘‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं । यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है ।’’
इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया । घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था । उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमंदिर में स्थापित करा दिया । परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि किसी भी प्रकार का अशुभ नहीं होता था । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा : ‘‘सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो ।’’ परंतु वह इतना अर्थलोलुप, लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।
एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया । वहाँ एक सिंह ने घोड़ेसहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया । वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान ने उसे मार डाला । उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी । अपने भाई प्रसेन के न लौटने से सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ । वह कहने लगा : ‘‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था ।’’
सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में कानाफूसी करने लगे । जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरुषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढ़ने के लिए वन में गये । वहाँ खोजते-खोजते उन लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है । जब वे लोग सिंह के पदचिह्न देखते हुए आगे बढ़े तो देखा कि पर्वत पर एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और घोर अंधकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में अकेले ही प्रवेश किया । भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमंतक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है । वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए । उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत होकर चिल्ला उठी । उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये । परीक्षित ! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे । उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला । उन्होंने भगवान को एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे । जिस प्रकार मांस के लिए दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे । पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किये, फिर शिलाओं से, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे । अंत में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा । परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों से आपस में वे अट्ठाईस दिन तक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे । अंत में भगवान श्रीकृष्ण के घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी । उत्साह जाता रहा । शरीर पसीने से लथपथ हो गया । तब उन्होंने अत्यंत विस्मित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा : ‘‘प्रभो ! मैं जान गया । आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान विष्णु हैं । आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं । आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनानेवाले हैं । बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं । काल के जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अंतरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं । प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था । उस समय समुद्र के अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े घड़ियाल और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था । तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुंदर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया । आपके बाणों से राक्षसों के सिर कट-कटकर पृथ्वी पर लोट रहे थे । अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं ।’’
परीक्षित ! जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेमयुक्त गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान से कहा : ‘‘ऋक्षराज ! मैं मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आया हूँ । इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ ।’’
भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान ने बड़े आनंद से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया ।
भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की । परंतु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा में से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारिका लौट गये । वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ । सभी द्वारिकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुर्गादेवी की शरण में गये, उनकी उपासना करने लगे । उनकी उपासना से दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया । उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नवसहधर्मिणी जाम्बवती के साथ श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये । सभी द्वारिकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानंद में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।
तदनंतर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी । सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया । मणि तो उसने ले ली, परंतु उसका मुँह लटक गया । अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।
उसकी आँखों के सामने निरंतर उसका अपराध नाच रहा था । बलवान का विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था । अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों । मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं । सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ । धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा । अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमंतक मणि, दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ । यह उपाय बहुत अच्छा है । इसीसे मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है ।’
सत्राजित ने अपनी विवेकबुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमंतक मणि, दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं । सत्यभामा शील-स्वभाव, सुंदरता, उदारता आदि सद्गुणों से सम्पन्न थीं । बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था । परंतु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया । परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा : ‘‘हम स्यमंतक मणि न लेंगे । आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे । हम तो केवल उसके फल के अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं । वही आप हमें दे दिया करें ।’
श्री शुकदेवजी कहते हैं : ‘‘परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पांडवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है तथापि जब उन्होंने सुना कि कुंती और पांडव जल मरे तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये । वहाँ जाकर भीष्म पितामह, कृपाचार्य, विदुर, गांधारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ संवेदना - सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे : ‘‘हा