राजा भोज को एक युवक ने अपनी असाधारण प्रतिभा से बड़ा प्रसन्न कर दिया । वह युवक प्रतिदिन प्रातःकाल जल्दी उठता था । सूर्योदय के पहले स्नानादि कर लेने से बुद्धि में सात्त्विकता आती है, स्वभाव में प्रसन्नता आती है और स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है ।
वह युवक सुबह जल्दी नींद में से उठते ही चिंतन करता था कि ‘जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति आती-जाती रहती हैं, उनको जाननेवाले सच्चिदानंदस्वरूप आत्मदेव में मैं शांत हो रहा हूँ... ॐ आनंद...’ जो नित्य-शुद्ध-बुद्ध चैतन्य है - अपना शाश्वतस्वरूप ‘मैं’, उसकी स्मृति में, सुखस्वरूप में, गुरु के बताये मार्ग से ध्यानमग्न होता था । गुरु के बताये अनुसार जप करता था । उसका व्यवहार प्रसन्नता एवं आत्मीयता से इतना भरा होता था कि सारे मंत्री भी उसका गुणगान किये बिना नहीं रह सकते थे ।
राजा ने वर्ष के अंत में उस युवक का सम्मान-समारोह आयोजित करवाया एवं उसकी प्रशंसा करते हुए कहा : ‘‘युवक ! भले तुम किसी और के पुत्र हो लेकिन मेरे राजकुमारों से भी तुम हजार गुना अच्छे हो । तुम्हारी असाधारण सेवाओं के प्रति-उपकार के रूप में कुछ न कर पाने से मैं बोझ से दबा-सा जा रहा हूँ । तुम स्वयं ही कुछ माँग लो ताकि मेरा भार कुछ हलका हो जाय । तुम जिससे कहो उससे तुम्हारा विवाह करवा दूँ, मनोरंजन के लिए नर्तकियाँ आदि दे दूँ । यदि मैं तुम्हें कुछ न दूँ तो मैं मानव कहलाने लायक ही न रहूँगा । माँग लो युवक ! तुम्हें जो चाहिए माँग लो ।’’
यह सुनकर भारत के उस युवक ने क्या गजब का उत्तर दिया ! उसने कहा : ‘‘राजन् ! मुझे जो चाहिए वह आपके पास है ही नहीं तो मैं क्या माँगूँ ? सामनेवाले के पास जो हो, वही चीज माँगनी चाहिए । उसके सामर्थ्य से बाहर की चीज माँगना माँगनेवाले की नासमझी है ।’’
राजा भोज हैरान रह गये युवक की बातें सुनकर ! फिर बोले : ‘‘मेरे पास किस चीज की कमी है ? सुंदर स्त्री, धन, राज्य - सभी कुछ तो है । अगर तुम कहो तो तुम्हें बहुत सारी जमीन-जागीर दे सकता हूँ या पाँच-पच्चीस गाँव भी दे सकता हूँ । माँग लो, संकोच न करो ।’’
युवक : ‘‘राजन् ! सुंदर स्त्री, मनोरंजन करनेवाली नर्तकियाँ और महल आदि मनोरंजन भोग दे सकते हैं किंतु यह जीवन भोग में बरबाद होने के लिए नहीं है वरन् जीवनदाता का ज्ञान पाने के लिए है और इसके लिए मुझे किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा की आवश्यकता है । मैं तो परम शांति, परम तत्त्व को पाना चाहता हूँ । वह आपके पास नहीं है राजन् ! फिर मैं आपसे क्या माँगूँ ?’’
राजा भोज धर्मात्मा थे । बोले : ‘‘युवक ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे माता-पिता भी धन्य हैं ! तुमने तो जीवन की जो वास्तविक माँग है वही कह दी । परम शांति तो मनुष्यमात्र की माँग है ।’’
बाहर की धन-दौलत, सुख-सुविधाएँ कितनी भी मिल जायें, उनसे कभी पूर्ण तृप्ति नहीं होती । बाहर की चाहे कितनी भी प्रतिष्ठा मिल जाय, सत्ता मिल जाय, अरे ! एक व्यक्ति को ही सारी धरती का राज्य मिल जाय, धन मिल जाय, सुंदरियाँ उसकी चाकरी में लग जायें फिर भी उसे परम शांति नहीं मिल सकती । परम शांति तो उसे मिलती है जिसे पूर्ण गुरु का पूर्ण ज्ञान मिल जाता है ।