गुरु-सुमिरन और सेवा से लघुता छूट जाती है । ‘मैं देह हूँ, संसार सच्चा है और संसार से सुख लेना है ।’ - यह लघुता है । ‘मेरे गुरु ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, महेश हैं, साक्षात् परब्रह्म हैं ।’ - यह गुरुता है । गुरु के चिंतन, सुमिरन तथा सान्निध्य से लघुता कहाँ चली गयी, पता नहीं चलता और गुरुता सहज में आ जाती है, उसमें श्रम नहीं करना पड़ता है । ऐसे शिष्य के जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के 17 लक्षण दिखने लगते हैं :
(1) शिष्यों के जीवन में विषयाकार अनुभवों का प्रभाव नहीं पड़ता । जैसे अच्छी चीज देखी तो अच्छी लगी, विषयाकार वृत्ति तो हुई लेकिन चित्त में पहले जैसा प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
(2) जो साधक आँख बंद करके ॐकार अथवा गुरुदेव का ध्यान करते हैं, उनको गुरुमूर्ति या ॐकार आँख बंद करने के बाद भी स्पष्ट दिखता है । उसको बोलते हैं उपासना में मूर्ति का स्पष्टीकरण ।
(3) इष्टमूर्ति, गुरुमूर्ति या ॐकार - जिसका वे ध्यान करते हैं, उसमें इतने रसमय हो जाते हैं कि और कहीं ज्यादा मन लगाने की उनको जगह नहीं दिखती । इधर-उधर मन जायेगा, फिर उसीमें आ जायेगा ।
(4) गुरुमूर्ति, इष्टमूर्ति, प्रभुमूर्ति को देखते-देखते शिष्य की एकाग्रता और श्रद्धा से उस मूर्ति में घन सुषुप्ति में जो ब्रह्म है, जो सुषुप्त चैतन्य है, उसकी चेतना से वह भर जाती है । भक्त की भावना में, उपासना में ऐसी ताकत है ! जैसे एक साधु महाराज की भावना ने गोल-मटोल पत्थर के शालग्राम में से श्रीकृष्ण की मूर्ति बना दी और वह मूर्ति अभी भी वृंदावन में गुसाईं साधुओं के पास है । तो यह उपासना का प्रभाव भक्त के जीवन में खिलने लगता है ।
(5) शिष्य के जीवन में इष्ट-प्रेम बढ़ने लगता है । गुरुमूर्ति को देखे, गुरुवाक्य को सुने, गुरुचर्चा को सुने तो हृदय से प्रेमरस आने लगता है ।
संसारी विषय-विकारों के रस और अक्लवालों, बुद्धिमत्तावालों के रस से भी ये भक्त बहुत ऊँचे रस के धनी हो जाते हैं, ऊँचे अनुभव के धनी हो जाते हैं । जो बलवान कामवासना है, वह उनके जीवन में इतना प्रभाव नहीं डाल पाती है । नहीं तो कामविकार को जीतने में बड़े-बड़े फिसलाहटों से गुजरते हैं । ‘भागवत’ में भगवान वेदव्यासजी ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार - इन एक-एक दोषों को जीतने के लिए अलग-अलग साधना-पद्धतियाँ बतायीं और आखिर में यह भी बताया कि एतत् सर्वं गुरौ भक्त्या... ये सारी साधनाएँ गुरुभक्ति से सहज में सफल हो जाती हैं ।
(6) धीरता बढ़ती है । भावुक होकर गुरु-आश्रम को छोड़ के चले जाने की बेवकूफी छूट जाती है । अंधी भावुकता पर वे विजय पा लेते हैं ।
(7) उनको नैतिक अशांति नहीं होती । वे अनैतिकताभरा आचरण नहीं कर पाते । और उनमें मानसिक गंदगी नहीं रहती तो मानसिक अशांति भी नहीं होती । मानसिक अशांतिवाला ही भाग-दौड़ करता है ।
नैतिक और मानसिक अशांतिवाले को जो धक्के लगते हैं, गिरावटें आती हैं, उनसे भी वह पार रहता है । हमको ये धक्के नहीं लगे थे ।
(8) जिनका भी ध्यान करे - गुरु, ईश्वर, ॐकार का, उनके चारों ओर पीला-पीला रंग दिखाई देता है ।
(9) आपके मन में जो विचार आयें, वे साकार होकर आपको ही चकित कर दें - आप ऐसे सत्य संकल्पवादी हो जाते हैं । कोई विचार आया, देखा तो वह हो गया । विचार आया कि ‘रेलगाड़ी रुक जाय’ तो रुक गयी । विचार आया कि ‘बरसात रुक जाय’ तो रुक गयी । - ये तुम्हारे विचार ही तुमको चकित कर देंगे ।
जब हेलिकॉप्टर गिरा, उस समय भी कोई ज्यादा कुछ नहीं किया था । इतना बड़ा हादसा और किसीको खरोंच तक नहीं आयी ! सब चकित हो गये । ये दिव्यताएँ भी जीवन में आने लगती हैं ।
(10) ध्यान-भजन में बैठते ही किसी भी विषय की कोई भी शंका हो, तुरंत उसका समाधान, सही उपाय मिल जाता है ।
(11) गुरुमूर्ति से गुरु निकल आयें, बातचीत की गुरु के साथ । इष्टमूर्ति से श्रीकृष्ण आ गये, रामजी आ गये, देवी माता आ गयीं फिर मूर्ति में समा गये, ऐसे चमत्कार भी होते हैं । परंतु सबको हों - यह जरूरी नहीं है लेकिन तीव्र भक्तिमार्गी के साथ हो सकता है ।
(12) आप जिसके बारे में विचार करोगे कि ‘यह आदमी कैसे मिले?’ बस, फिर छोड़ दिया तो वह व्यक्ति आपके पास देर-सवेर हाजिर हो जायेगा, चाहे कितना भी बड़ा व्यक्ति हो!
मैं डीसा (गुज.) में जब एकांत में रहता था, तब की बात है । अपने आश्रम में शिवलाल काका (अभी उनकी उम्र 92 साल की है) रहते हैं । उनके होटल के सामने एक मुसलमान बाई गाउन पहन के पागलों की नाईं पड़ी रहती थी ।
शिवलाल काका का दोस्त टेकचंद मेरे पास आया । रात को डेढ़ बजे वह घर जा रहा था तो उस बाई ने उसको बुलाया : ‘‘ऐ इधर आ ! फकीर के यहाँ से खजाना लूट के ले जा रहा है ।’’ हमारे उसके बीच की बात उसने थोड़ी-बहुत कह दी। सुबह टेकू ने मुझे सारी बात बतायी । मेरे को लगा कि ‘यह बाई कोई सिद्ध आत्मा है, अब मैं शहर में जाऊँगा तो भीड़ हो जायेगी । क्या करें ?’ आधा घंटा भी नहीं गुजरा होगा, वह भागा-भागा आया कि ‘‘वह बाई अपने आश्रम के पास में नीम के पेड़ के पास आकर बैठ गयी है ।’’ मैं उससे मिलने गया तो मेरी ओर देखकर खूब हँसी और मेरे जीवन संबंधी भी कुछ बातें कह डालीं ।
तो साधन-दशा में आपके अंतःकरण की स्थिति ऐसी हो जाती है ।
(13) आपकी जो आवश्यकता है, इच्छित वस्तु है उस वस्तु की आवश्यकता महसूस हो उसके पहले बिना प्रयत्न के वह आपके पास आ जायेगी । ऐसा तो कई बार होता है । लेकिन आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार के आगे ये बहुत छोटी बातें हैं ।
(14) प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास करते हैं तो आपके शरीर में सत्त्वगुण बढ़ जाता है और हल्का-फुल्कापन महसूस होता है ।
(15) आपकी वाणी में मधुरता व प्रभाव आ जायेगा, मन शांत हो जायेगा और दीप्ति शक्ति जागृत रहेगी । रुपये लेकर दुनियाभर की मीठी भाषा, अलंकारिक भाषा बोलनेवाले लोग तो हैं, वैसी दीप्ति नहीं; उस गुरुनिष्ठ साधक का बोलना हजारों-लाखों लोगों के लिए राह रोशन करता है । ये ध्यान से ऊँचाइयाँ आ जाती हैं, जो दुनियाभर की पदवियों या प्रमाणपत्रों से नहीं हो सकता ।
(16) बिना चाहे भविष्य की घटनाएँ आपको मालूम होने लगेंगी । जैसे मेरे गुरुजी को सेवक ने समाचार पत्र पढ़कर सुनाया कि ‘अमेरिकी अवकाशयात्रीचन्द्रलोक तक पहुँच गये हैं । वहाँ जीवन की सम्भावना है और अब एकाध वर्ष में वहाँ होटल बनेगा ।’ तो गुरुजी ने नहीं चाहा था कि ‘यह मेरे से पूछे और मैं जाँचूँ ।’ नहीं, जरा-सा चुप हो गये, फिर बोले : ‘‘नहीं बनेगा, रख दे ।’’ यह सन् 1969 की बात है । अमेरिका ने अभी तक चन्द्रलोक में होटल नहीं बनाया और नहीं बनेगा, सम्भव नहीं है ।
(17) जो आपको देखेगा, आपसे मिलेगा वह आकर्षित होगा, आह्लादित होगा । आपके अंतरात्मा का ऐसा प्रभाव निखरेगा कि उनको लगेगा, ‘आपको देखते रहें बस, अच्छा लगता है ।’ आत्मा की ऐसी शक्तियों का विकास होता है ।
आत्मवेत्ता गुरु अथवा ईश्वर में प्रीति करनेवाले का जीवन इन 17 लाभों तक ही सीमित नहीं रहता । जो भी इधर चलता है उसे अद्भुत आनंद आता है, अद्भुत अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं । इन 17 में से मेरे साधकों को तो कई अनुभूतियाँ होती हैं । किसीको 2, 3... किसीको 4, 5, 7, 9... ऐसे तो बहुत लोग हैं लेकिन इन सारी अनुभूतियों के बाद भी आत्मसाक्षात्कार की भूमिका और आगे की है । वहाँ क्या होता है, वह वाणी में नहीं आता ।
मूर्ति में तो श्रद्धा टिक जाती है लेकिन हयात महापुरुष में श्रद्धा टिकना ऐरे-गैरे का काम नहीं है ।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।
मंगल तो देवता भी कर लेते हैं । लेकिन हनुमान-उपासना में संत तुलसीदासजी ने बहुत साफ-सुथरा रास्ता दिखा दिया :
जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरु देव की नाईं ।।
गुरुदेव हमारा जितना भला जानते और कर सकते हैं, उतना हमारी खोपड़ी सोच भी नहीं सकती । मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरा इतना भला हो सकता है, मैं ऐसा दिव्य लाभ, दिव्य अनुभव कर सकता हूँ, यह पता ही नहीं था, सोच भी नहीं सकता था । गुरुकृपा हि केवलं...
Ref: RP-ISSUE270-271