गुरुपूर्णिमा के दिन गुरु का दर्शन, गुरु का पूजन वर्षभर की पूर्णिमाएँ मनाने का पुण्य देता है । दूसरे पुण्य के फल तो सुख देकर नष्ट हो जाते हैं लेकिन गुरु का दर्शन और गुरु का पूजन अनंत फल को देनेवाला है । इसीलिए संत कबीरजी ने कहा :
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।
वे संत अगर हमें दीक्षा देते हैं और हमारे सद्गुरु हैं तो फिर हमको अनंत फल होगा । जिस फल का अंत न हो ऐसा फल होता है गुरु के दर्शन, गुरु के सत्संग, गुरु की दीक्षा से । गुरुपूनम के दिन शिष्य गुरु के पास आते हैं तो वर्षभर जितनी प्रगति हुई उसमें फिर गुरु के सत्संग से कुछ-न-कुछ नयी दृष्टि, नयी युक्ति, आगे का पाठ मिल जाता है । जैसे पाँचवींवाला छठी में, छठीवाला सातवीं में, ऐसे ही साधक हर साल एक-एक कदम ऊपर बढ़ते हैं । इसलिए गुरु के चरणों में जाना जरूरी होता है । गुरुपूनम सर्वोपरि है क्योंकि यह मुक्तिदात्री है, कल्याणदात्री है । अन्य समय गुरु के द्वार न भी पहुँचो लेकिन गुरुपूनम को तो गुरु के द्वार जरूर पहुँचें और नहीं पहुँच सकते तो मानसिक रूप से भी गुरु से सम्पर्क करें, प्रगति होती है ।
संत कबीरजी कहते हैं :
कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ।।
जिसके जीवन में सद्गुरु नहीं हैं वह अभागा है । रामायण में आता है :
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।। (श्री रामचरित. उ.कां. : 92.3)
ब्रह्माजी जैसी सृष्टि बनाने की ताकत हो और शंकरजी की नाईं प्रलय करने की ताकत हो फिर भी सद्गुरु के बिना जन्म-मरण के चक्कर से तुम पार नहीं हो सकते हो । इतनी महत्ता है गुरु की । शब्द में ताकत है लेकिन वह शब्द अगर दैवी शब्द है तो दैविक फायदे होते हैं, आध्यात्मिक शब्द है तो आध्यात्मिक फायदे होते हैं । यदि वह मंत्र है और गुरु ने विधिवत् दिया है तो उसके जप से जो फायदा होता है, उसका वर्णन हम-तुम नहीं कर सकते ।
सद्गुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट ।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट ।।
संत तुलसीदासजी बोलते हैं :
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । (श्री रामचरित. बा.कां. : 0.5)
मेरे गुरु मनुष्य के रूप में साक्षात् हरि हैं ।
संत रज्जबजी गुरु दादूजी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं :
गुरु दादू का ज्ञान सुन, छूटें सकल विकार ।
जन रज्जब दुस्तर तिरहिं, देखैं हरि दीदार ।।
...उनकी कृपा से मुझे हरि का साक्षात्कार हुआ ।
संत कबीरजी बोलते हैं :
गुरु हैं बड़े गोविन्द ते, मन में देखो विचार ।
हरि सुमिरे सो वार है, गुरु सुमिरे सो पार ।।
जो गुरु का सुमिरन करते हैं वे पार हो जाते हैं ।
मीराबाई ने कहा :
मेरो मन लागो हरि जी सूँ, अब न रहूँगी अटकी ।।
गुरु मिलिया रैदास जी,
दीन्हीं ज्ञान की गुटकी । (गुटकी = घूँट)
मुझे रैदासजी गुरु मिल गये हैं और उन्होंने मुझे ज्ञान के घूँट पिला दिये हैं । मेरा मन भगवान में लग गया है, अब मैं माया में नहीं अटकूँगी । दुःख में, अभिमान में फँसूँगी नहीं । ये सब आने-जानेवाले हैं ।
सहजोबाई बहुत उच्च कोटि की आज्ञाकारी सत्शिष्या थीं । सहजोबाई कहती हैं :
हरि किरपा जो होय तो, नाहीं होय तो नाहिं ।
पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि बहि जाहिं ।।
हरि की कृपा हो तो हो, न हो तो कोई जरूरत नहीं लेकिन गुरुकृपा मिल जाती है तो बेड़ा पार हो जाता है । जब तक गुरु का ज्ञान नहीं मिलता है, तब तक सारी बुद्धियाँ बदलती रहती हैं । हरिकृपा मिलती है तब भी गुरुकृपा चाहिए पर गुरुकृपा मिल गयी तो किसीकी कृपा की जरूरत नहीं होती ।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे ना शेष ।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।
जो अंतवाला है उसमें अनंत का दर्शन करा देती है गुरुकृपा । गुरुकृपा ऐसी है कि जड़ में चेतन का साक्षात्कार करा देती है, अनित्य में नित्य आत्मा से मिला देती है । शरीर नश्वर, धन नश्वर लेकिन गुरुकृपा इनमें से भी शाश्वत प्रकट कर देती है । गुरुकृपा की महिमा कोई पूरी नहीं गा सकेगा ।
अजब राज है मोहब्बत के फसाने का ।
जिसको जितना आता है,
उतना ही गाये चला जाता है ।।
जैसे भगवान के स्वरूप का वर्णन, भगवान की महिमा पूरी नहीं गा सकते, ऐसे ही भगवत्प्राप्त गुरु की महिमा भी पूरी कोई नहीं गा सकता ।
ऐसे महामहिमावान गुरु को साधारण जड़ बुद्धिवाले लोग नहीं समझ सकते लेकिन सत्शिष्य सद्गुरु के प्रसाद से नर से नारायणरूप बनकर आनंद में मस्त रहता है । - पूज्य संत श्री आशारामजी बापू