Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ब्रह्मचर्य व एकाग्रता का सामर्थ्य

महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में हरिदास जी नाम के एक संत हो गये। बाल्यकाल में उनके माता-पिता ने उनको सत्संग की कुछ बातें सुनाई थीं। 15-16 साल की उम्र रही होगी जब वे तैलंग साधु के संपर्क में आये। जब साधु मिलते हैं तो वे साधना की बात करेंगे, संयम की बात करेंगे।

तैलंग साधु से दीक्षा ली तो उन्होंने संयम, प्राणायाम सिखाया और कहाः "बेटा ! नजर कहीं भी जाय तो तुरन्त नासाग्र दृष्टि करना। अपने से बड़ी हो तो उसको माता समान, बराबरी की हो तो बहन के समान, नन्हीं-मुन्नी हो तो कन्या के समान देखना। अपने विचारों को ब्रह्मचर्य के पवित्र गुणों से संपन्न रखना।"

गुरुआज्ञा को ईश्वर की आज्ञा के तुल्य मानकर वे हरिदास जी लग गये। हरि के उस परम प्रेम में, ध्यान में। प्राणायाम नियमित करते, वाणी का संयम करते, अमावस्या, एकादशी, पूनम के दिन उपवास करते। थोड़ा दूध लेते। बाकी के दिनों में चावल, मिश्री, घी, दूध आदि का उपयोग करते।

प्राणायाम से चंचल मन शांत होता है, अपने आप में बैठता है। इससे सामर्थ्य आता है। ब्रह्मचर्य व प्राणायाम से शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है। मन के रोग भी मिटते हैं, बुद्धि की चंचलता भी मिटती है और आत्मबल का विकास होता है।

पहले जो कुछ तीर्थ-व्रतादि उनको करना था, उन्होंने प्रयाग, काशी आदि तीर्थों की यात्रा कर ली। जहाँ अनुकूल पड़ा वहीं रह लिये। बड़ी विलक्षण शक्तियाँ उनमें संचित होने लगी। वे संत प्रयागराज में यमुना तट पर थे। किसी वृक्ष के नीचे बैठे थे। पास में मंदिर था। उन संत महापुरुष का प्रभाव, शांति देने का उनका सामर्थ्य, सारगर्भित बोलने की उनकी शैली आदि बातों ने भक्तों की भीड़ को आकर्षित किया। भक्तगण प्रायः उनको घेर के बैठे रहते थे।

इन्हीं दिनों एक पादरी अपने चमचों के साथ भीड़ में घुस बैठा था। बाबाजी ने देखा कि पादरी थोड़ी देर बैठा लेकिन उसको तो अपने ईसाईयत का प्रचार करना था अतः वह बीच में खड़ा होकर बकने लगा किः "यह ध्यान क्या होता है ? प्राणायाम क्या होता है ? इन ब्रह्मचर्य की बातों से क्या काम होता है ?" वह हमारे हिंदू धर्म के देवी-देवताओं, साधुओं एवं स्वयं हिंदू धर्म को खरी-खोटी सुनाने लगा।

सन् 1830 की यह बात है। उस समय अंग्रेज शोषकों का शासन था। अतः वह बकने लगा और अपने धर्म ईसाईयत का डिम-डिम बजाने लगा। वे महापुरुष और उनके संयत साधक काफी देर तक शांत रहकर सहिष्णुता का परिचय देते रहे। महापुरुष चमत्कार दिखाते नहीं, लेकिन कभी-कभी उनके द्वारा कुछ हो जाता है। ....तो महाराज ने कहाः "तुम बोलते हो कि तुम्हारे जीसस भगवान थे और वे पाँच रोटियों को ढँककर बाँटते गये और कइयों को खिलाया तो इससे क्या हो गया ? यह तो मन की एकाग्रता से कुछ सिद्धियाँ आ जाती हैं। जादू से अथवा योग से रोटियाँ निकाल दीं तो क्या ? पचासों आदमियों को भरपेट रोटियाँ खिला दीं तो क्या ? इसमें क्या बड़ी बात है ? योग केवल लोगों को रोटियाँ खिलाने के लिए थोड़े ही है ? पादरी ! तू जीसस को इसलिए भगवान मानता है, इसलिए बड़ा मानता है कि केवल पाँच रोटियों से उन्होंने पचासों आदमियों को खिला दिया तो ले, मेरे पास तो पाँच रोटियाँ भी नहीं है, छूमंतर करने के लिए कोई जादू भी नहीं है। मेरे पास तो योग है जो परमात्मा से एकत्व करने के लिए हैं। ....और अब देख ले।"

ऐसा कहकर उन महाराज ने अपने खाली झोले में हाथ डाला और उसमें से वे पूरी, पकवान, व्यंजन निकाल-निकाल कर फेंकते गये। देखते ही देखते व्यंजनों का ढेर लगा दिया। पादरी दंग होकर टुकुर-टुकुर देखता ही रह गया ! वहाँ पर एकत्रित लोग भी आश्चर्यमुग्ध हो गये ! हद हो गई ! खाली झोला था और पूरी पकवानों का इतना ढेर ! महाराज निकाल-निकाल कर बस फेंकते ही रहे। .....लेकिन पादरी को तो अपना उल्लू सीधा करना था। वह बोलाः "यह तो तुम्हारे पास नीचे कुछ छुपा होगा। झोले के नीचे क्या छुपाया है ?" हरिदास जी ने झोला ऊपर उठाते हुए कहाः "नीचे तो फर्श है, मूर्ख ! क्या छुपाया है ?" पादरी ने कहाः "कुछ होगा अवश्य। यह हम सच नहीं मानते। हाँ ! हमारी ब्रेड, बटर, सेन्डविच निकालकर दिखाओ तो हम मानेंगे।" हरिदास महाराज जी ने कहाः "देखो, अंडा, शराब और मांस को छोड़कर तू दुनिया की कोई भी चीज माँग तो अभी निकाल देते हैं। ये पावरोटी ले.... ये बिस्किट ले....'' इस प्रकार वे देते गये.... देते गये...... बिस्किटों एवं पावरोटियों का ढेर लगा दिया।

पादरी ने देखा कि अब वह मुँह दिखाने काबिल नहीं रहा। वह नाव में बैठकर यमुना जी के उस पार जाने लगा। हरिदास जी ने कहाः "अरे पादरी का बच्चा ! तू हिन्दू धर्म को गालियाँ देता है, हिंदू संस्कृति को नीचा दिखाता है और अपना डिम-डिम बजाता है !" ऐसा कहकर वे पादरी के पीछे पड़े। पादरी तो नाव में बैठखर जाने लगा और हरिदास जी उसके पीछे-पीछे यमुना जी के जल के ऊपर पैदल ही चलने लगे। यह देखकर पादरी हक्का बक्का रह गया कि मैं तो नाव में और ये पानी के ऊपर पैदल चलकर आ गये ! जब यह यमुना जी के उस किनारे उतरा तो महाराज जी भी उस किनारे पहुँच गये। अब तो उसने हाथ जोड़े और अपनी गलती के लिए बहुत शर्मिन्दा हो गया। महाराज जी ने कहाः "कोई बात नही। ये चीजें तो तुम्हारे मनःकल्पित जगत की हैं। यह सारा जगत मनोमय है। मन जितना एकाग्र होता है, उतना उसमें सामर्थ्य आता है। यह चमत्कार तो तेरे जैसे बुद्धुओं को हिंदू धर्म की महानता दिखाने के लिए किया। वास्वत में तो हिंदू धर्म की महानता इन चमत्कारों में निहित नहीं है, बल्कि सनातन सत्यस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कराने में इसकी महानता निहित है।"

उन महापुरुष के पास कोई गरीब सूरदास आया तो महाराज बोलेः "अच्छा.... कोई बात नहीं। देखने लग जा।" जरा सा हाथ घुमा दिया और वह सूरदास देखने लग गया। उसकी आँखों में रोशनी आ गई। वह तो धन्य-धन्य हो गया ! ऐसे ही कोई अशांत व्यक्ति आता और महाराज जी उसको साहस व सांत्वना के दो मीठे वचन सुना देते तो उसकी अशांति मिट जाती। किसी के बच्चे ऐसे-वैसे होते और महाराज जी जरा आशीर्वाद दे देते तो वे ठीक हो जाते। इस प्रकार हरिदास जी महाराज के सत्संग और उनकी करूणा-कृपा से बहुत लोगों को लाभ हुआ। सनातन धर्म की निंदा करने वाले पादरियों की आँधी को हटाने में महाराज का बहुत योगदान था। उन्होंने समाज में सनातन धर्म की महिमा के प्रति जागृति लाई तो हिंदूओं को पता चला किः 'पादरी लोग हमें गुमराह करते हैं वरना हम भारतीय संस्कृति में पैदा हुए हैं यह तो हमारा सौभाग्य है।'

राजा रणजीत सिंह हरिदास जी महाराज के संपर्क में आये तो वे सपरिवार, नाते रिश्तेदारों सहित महाराजश्री से दीक्षा लेकर अपना भाग्य बनाने के रास्ते चल पड़े। हरिदास जी महाराज ने धारणा का खूब अभ्यास किया था इसलिए संकल्प करके कुछ भी कर लेते थे। संकल्पबल से ही उन्होंने घमंडी पादरी को नतमस्तक कर दिया, निगुरों को सगुरा बना दिया और अभक्तों को भक्ति का दान दे दिया। वे भी एक युवक ही तो थे।

ऐसे तो कई युवक हैं। युवक अपनी शक्ति को पहचानते नहीं। बाहर घूम-घूमकर वे लाचार हो जाते हैं क्योंकि यौवनतत्त्व के सुरक्षा की महिमा नहीं जानते, एकाग्रता की महिमा नहीं जानते और अपने अंदर ईश्वरीय सनातन सत्य भरा है यह वास्तविकता वे बेचारे नहीं जानते इसीलिए खप जाते हैं। उनके पास कई 'सर्टिफिकेट' होते हैं फिर भी चार पैसे की नौकरी के लिए वे भटकते-फिरते हैं। कोई व्यक्ति, कंपनी या संस्था चार नौकर रखने के लिए वे भटकते-फिरते हैं। कोई व्यक्ति, कंपनी या संस्था चार नौकर रखने के लिए विज्ञापन देते हैं तो सैंकड़ों बेरोजगार लोग आवेदन पत्र भेजते हैं। दो पाँच-पाँच आदमियों की जरूरत होती हैं वहाँ सैंकड़ों आदमी लाइन में लगते हैं नौकरी पाने के लिए। ....और इन महाराज में कितना सामर्थ्य ! कोई सर्टिफिकेट नहीं, कोई प्रमाणपत्र नहीं, कोई पद नहीं फिर भी ब्रह्मचर्य व योग के बल से वे इतनी समाजसेवा एवं देशसेवा करने में सक्षम हो गये। यौवन-सुरक्षा.... अपने सर्वस्व की सुरक्षा..... सर्वेश्वर को पाने की योग्यता की सुरक्षा.... यौवन-सुरक्षा। माता-पिता व पत्नी से वफादार रहने की कुंजी... यौवन-सुरक्षा। अतः 'युवाधन सुरक्षा अभियान' चलाने वाले पुण्यात्माओं के साथ आप भी कंधे-से-कंधा मिलाकर मानवता की सेवा और सुरक्षा में साझीदार बनें। आप भी पाँच-पच्चीस यौवन-सुरक्षा पुस्तक इस ढंग से बेचें या बाँटें कि सामने वाला व्यक्ति इसे पाँच बार पढ़ने को सहमत हो जाये।