स्वामी रामतीर्थ स्वामी नहीं बने थे तीर्थराम थे, तब वे किराये के एक छोटे-से कमरे में रहते थे । गोबर की लिपाई का जमाना था । उनके कमरे में एक बिल था । उस बिल में एक जहरीला काला साँप रहता था । वे जब भोजन करने बैठते तो साथ-साथ दूध की एक कटोरी तैयार करके रखते । साँप से कहते : ‘‘आ जा मेरे कालू ! मेरे कन्हैया !! आ जा...’’ तो वह विषधर कालू आ जाता और कुंडली मारकर दूध पीने बैठ जाता ।
उसका दूध पीना पूरा होता तो उससे पूछते : ‘‘कैसा लगा दूध ?’’ वह फन फैलाता, डोलता । तीर्थराम उसके फन को सहलाते, हाथ घुमाते । आपस में मस्ती की दो बातें करते, फिर कहते : ‘‘अच्छा चल, कालू ! अब तू जा ।’’ साँप बिल में चला जाता । वह बिल में जाता फिर तीर्थराम भोजन करते । लोग बोलते कि ‘‘साँप तामसी स्वभाव का प्राणी है, वैरवृत्तिवाला है, कभी काट न ले ।’’ बोले : ‘‘क्यों काटेगा ? मैं उससे भयभीत नहीं हूँ, वह मुझसे भयभीत नहीं है ।’’ यह सिलसिला चलता रहा । एक बार ऐसा हुआ कि साँप बिल से बाहर निकले ही नहीं । दूध की कटोरी रखी और बुलाया : ‘‘आ जा मित्र ! आ जा । क्या बात है ? आ जा ।’’ नहीं आया तो उनकी थाली भी पड़ी रही ।
तीर्थराम बोले : ‘‘यह भी कोई रीत है ? तू रूठ के बैठ जाय और मैं खाना खा लूँ ! मित्र दूध नहीं पीता तो हम कैसे खाना खायेंगे !’’ तीर्थराम भोजन किये बिना ही उठ गये । कैसा प्राणिमात्र के साथ तादात्म्य है ! सिर्फ भाषा नहीं, प्रत्यक्ष दर्शन ! दूसरे दिन भोजन की अपनी थाली तैयार की और अपने मित्र के लिए कटोरी तैयार रखी । फिर बुलाया : ‘‘आओ मित्र ! क्या बात है, रूठे हो क्या ? हम तो तुम्हारे बिल में आ नहीं सकते पर तुम तो मेरे घर में आ सकते हो । मैं तुम्हारे घर के अंदर तो घुस नहीं सकता हूँ, छोटा-सा बिल है । तुम ही आ जाओ मित्र ! मैं तुझे कैसे ढूँढ़ूँ, कैसे राजी करूँ, कैसे ले आऊँ ? तू आ जा, आ जा... क्या नाराज हो ? आ जाओ ना !’’ साँप दूसरे दिन भी नहीं आया ।
इस तीर्थराम बादशाह ने कहा : ‘‘जब तुम नहीं खाते तो हम भी भोजन छोड़कर यह चले ।’’ वे चले गये । तीसरे दिन भी यही हुआ । पड़ोसी दंग रह गये कि ये कैसे व्यक्ति हैं ! वे बोलते : ‘‘वह तो साँप है । उसने तो इधर-उधर कहीं चूहा पकड़कर खाया होगा, खा के कहीं बैठा होगा मस्त और तुम बिल के आगे ‘मित्र-मित्र’ करके पुकार रहे हो । खा लो, खा लो... तीन-तीन दिन हो गये !’’ तीर्थराम बोले : ‘‘तुम्हें क्या पता ! प्रेम की भाषा तो पत्थर भी समझ जाते हैं, वह तो जागृत देवता है ।’’ ‘‘तुम चाहे कुछ भी बोलो, साँप तो खून के प्यासे होते हैं, काट खायेगा ।’’ बोले : ‘‘मित्र ! तुझे काटना है तो काट खा । क्या मुझसे अपराध हुआ है ? प्रेमी का अपराध भी चोट नहीं करता है । अगर तुझे मेरी तरफ से कोई चोट पहुँची है तो ले...’’ बिल के आगे अपना सिर रख दिया, अपना गाल रख दिया : ‘‘ले... पी ले... मेरे खून का प्यासा है ? बदला चुकाना चाहता है तो चुका ले । अपना गुस्सा निवृत्त कर ले लेकिन दूध पीने आ जा । नाराज है तो राजी हो जा । तू मेरे प्राण ले ले लेकिन तू दुःखी मत हो, मेरे से रूठ मत, मेरे प्यारे !’’ अब बदला क्या चुकायेगा, वह तो पानी-पानी हो गया । बाहर निकल आया और सकुर-सकुर दूध पीने लगा ।
तीर्थराम चपर-चपर भोजन करने लगे । क्या जादू है प्रेम का ! साँप इनको देखे, ये साँप को देखें । क्या प्रेम की भाषा है ! प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय । राजा चहो प्रजा चहो शीश दिये ले जाय ।। अहं दिये ले जाय ।। दूध पीकर वह प्रसन्न हुआ, भोजन करके ये प्रसन्न हुए । साँप ने फिर वैसा फन फैलाया, तीर्थराम उसे सहलाने लगे । अब साँप ने क्या किया, तीन दिन किसी कारण से नहीं आया तो मानो क्षमा-याचना कर रहा है । उस दिन तो तीर्थराम के गले से वह ऐसा लिपटा जैसे शिवजी को नाग लिपटकर फन चढ़ाते हैं । मानो लिपट-लिपटकर दोनों द्वैत में अद्वैत का आनंद उभार रहे हैं । साँप लिपटकर सिर पर फन चढ़ाता और तीर्थराम उसके ऊपर हाथ घुमा रहे हैं, खेल रहे हैं । शिवजी की मूर्ति प्रत्यक्ष दर्शन देती है कि विषधर भी प्रेममूर्ति शिवजी के आगे अपना विषैला स्वभाव भूल जाते हैं ।
तो सबकी गहराई में प्रेमस्वरूप परमात्मा है । आदमी को नित्य सुख देनेवाला परमात्म-प्रेम है । हम परमात्म-प्रेम से च्युत हो जाते हैं तो विषयों में हमें मजा दिखने लगता है और वही मजा हमारे लिए मुसीबत हो जाता है । ऐसे ही हम आबू की गुफा में रहते तो कभी गुफा में साँप घुस जाता था । कभी साँप के ऊपर पैर भी आ गया पर बेचारे साँप ने काटा नहीं । एक बार रीछ मिल गया था । मैं सुबह तीन-चार बजे घूमने गया तो देखा सामने रीछ ! ऐसे तो किसीको रीछ देखे तो सामने से झपेट ले किंतु मेरे को कुछ नहीं किया । देखो, ईश्वर में रुचि हो जाय तो फिर ईश्वर रक्षा करता है । रीछ में भी तो वही परमात्मा है, साँप में भी वही छुपा है । बस, हमारी प्रीति ईश्वर में हो जाय बाकी का सब ठीक हो जाता है ।
(पूज्य बापूजी की मधुर अमृतवाणी)