Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

गृहस्थ-जीवन

सुखमय गृहस्थ-जीवन के अनमोल सूत्र - पूज्य बापूजी

नारदजी ने कहा : ‘‘युधिष्ठिर महाराज ! छठा सद्गुण यह विकसित करना चाहिए कि अपना विवेक सजग रखे ।” कब, कहाँ, क्या बोलना ? कब, कौन-से मौसम में क्या खाना, कितना खाना, कैसे खाना ? इस विवेक से स्वास्थ्य का और मन का खयाल रखे ।

‘‘सातवाँ सद्गुण है मनःसंयम ।”

आँख की पुतली ऊपर नहीं, नीचे नहीं बिल्कुल सीध में एक जगह पर स्थिर करो पाँच से दस मिनट, मनःसंयम की शक्ति आ जायेगी । आपका मन प्रभावशाली बन जायेगा । अथवा आकाश, स्वस्तिक, भगवान या गुरु को देखते-देखते पाँच से दस मिनट आँख की पुतली स्थिर करो और मनःसंयम का प्रसाद बढ़ाओ तो मनोबल बढ़ जायेगा, संकल्पबल बढ़ जायेगा, इच्छाशक्ति विकसित हो जायेगी ।

‘‘८वीं बात है इन्द्रियों का संयम ।” बिनजरूरी देखना, बिनजरूरी सुनना, बिनजरूरी बोलना इनमें संयम हो ।

‘‘९वीं बात है अहिंसा ।” किसी जीव-जंतु, प्राणी की हिंसा न हो ।

नारदजी कहते हैं : ‘‘१०वीं बात है ब्रह्मचर्य ।” पत्नी है फिर भी वार-त्यौहार, तिथि का खयाल रखकर महीने-दो महीने में कभी संसार-व्यवहार करे तो वह गृहस्थी का ब्रह्मचर्य है और साधु का ब्रह्मचर्य तो सतत संयम है ।

‘‘११वीं बात है अपने जीवन में दानशीलता (त्याग) का गुण लाये, नहीं तो लोभ का दुर्गुण व्यक्ति को दबा देगा ।” जो दान नहीं करता उसको लोभ फँसा देगा ।

‘‘१२वीं बात है स्वाध्याय ।” अच्छी पुस्तकें पढ़ते रहना चाहिए । जैसे रोज स्नान, कुल्ला तथा नींद करना जरूरी है, रोज शरीर का स्वच्छ होना जरूरी है, ऐसे ही सत्शास्त्र और सद्गंरथ पढ़कर मन-मति को स्वच्छ करने का नियम रखे ।

‘‘१३वीं बात है सरलता ।” जो मन में आये, जैसा हो, वैसा ही बताये । ऐसा नहीं कि मन में कुछ और, बाहर कुछ और । कपटी, बेईमान समझते हैं : ‘हम इतने फायदे में हैं’ लेकिन बड़े भारी नुकसान में जा गिरते हैं । ऐसे आदमी का विश्वास कोई नहीं करेगा । बात बनानेवाले का इतना विश्वास नहीं होता है । जितना आदमी सरल है, उतना वह खुश रहेगा । जितना जो मचला (धूर्त, कपटी) है, उतना वह कम खुश रहेगा । फिर संतों का सान्निध्य कभी-कभी गृहस्थी को जरूर लेना चाहिए ।

‘‘१४वीं बात है अपने जीवन में संतोष हो । १५वाँ सद्गुण है समदर्शी संतों की सेवा खोज लेनी चाहिए ।”

समदर्शी संतों के दैवी कार्यों में भागीदार होने से ईश्वर के वैभव में भी आप लोग भागीदार हो जायेंगे, यह मेरा अनुभव है ।

‘‘१६वीं बात है विरति (निवृत्ति) ।” कितनी भी सफलता मिले, कितना भी धन मिले लेकिन शरीर, धन और संसारी सफलता रहनेवाली नहीं है । उनसे भीतर से थोड़ा वैराग्य करो, उनसे चिपको नहीं । सफलता, स्वास्थ्य, धन, सत्ता सदा नहीं रहनेवाले हैं । ये तुम्हें छोड़ दें इससे पहले तुम इनसे विरत रहो । दुनिया आपको तलाक दे दे या कंधे पर उठा के श्मशान ले जाय उसके पहले आप दुनिया को भीतर से तलाक देने की तैयारी रखो तो आप निर्दुःख नारायण को मिलोगे ।