Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

राष्ट्र प्रेम व आध्यात्मिक गुणों के धनी सुभाषचन्द्र बोस

राष्ट—नायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन भारतीय संस्कृति के ऊँचे सद्गुणों और राष्ट—प्रेम से ओतप्रोत था । उनकी माँ उन्हें बचपन से ही संत-महापुरुषों के जीवन-प्रसंग सुनाती थीं । सुभाषचन्द्र के जीवन में उनकी माँ द्वारा सिंचित किये गये महान जीवन-मूल्यों की छाप स्पष्ट रूप में झलकती है ।

मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म किसलिए ?

13 साल की उम्र में जब सुभाष छात्रावास में रहते थे, तब उनके मन में जीवन की वास्तविकता के संबंध में प्रश्न गूँज उठा कि ‘मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म किसलिए हुआ है ?’ उन्होंने अपनी माँ को पत्र लिखा कि ‘माँ ! मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? मुझे जीवन में क्या करना है ?’

बड़े होने पर ये ही सुभाष लिखते हैं कि ‘मैंने यह अनुभव कर लिया है कि अध्ययन ही विद्यार्थी के लिए अंतिम लक्ष्य नहीं है । विद्यार्थियों का प्रायः यह विचार होता है कि अगर उन पर विश्वविद्यालय का ठप्पा लग गया तो उन्होंने जीवन का चरम लक्ष्य पा लिया लेकिन अगर किसीको ऐसा ठप्पा लगने के बाद भी वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ तो ? मुझे कहने दीजिये कि मुझे ऐसी शिक्षा से घृणा है । क्या इससे कहीं अधिक अच्छा यह नहीं है कि हम अशिक्षित रह जायें ? अब समय नहीं है और सोने का । हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा ।’ नेताजी का आत्मविद्या के प्रति बहुत प्रेम था ।

इसलिए मैं हिन्दी सीख रहा हूँ

जब नेताजी विदेश में ‘आजाद हिन्द फौज’ बनाकर देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध में जुटे थे, तब वे रात को हिन्दी लिखने का अभ्यास करते थे । उनके एक सहायक ने उनसे एक दिन पूछ ही लिया : ‘‘नेताजी ! सारे संसार में युद्ध हो रहा है । आपके जीवन को हर समय खतरा है । ऐसे में हिन्दी का अभ्यास करने का क्या मतलब हुआ ?’’

सुभाषचन्द्र : ‘‘हम देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध लड़ रहे हैं । आजादी के बाद जिस भाषा को मैं राष्ट— की भाषा बनाना चाहता हूँ, उसमें पढ़ना-लिखना और बोलना बहुत आवश्यक है, इसलिए मैं हिन्दी सीखने की कोशिश कर रहा हूँ ।’’

मैं तो हिन्दी में ही बोलूँगा

नेताजी का राष्ट—भाषा के प्रति भी बहुत प्रेम था यह बात इस घटना में स्पष्ट दिखती है :

एक बार नेताजी भाषण देने प्रयाग गये । उनके सचिव ने कहा : ‘‘यहाँ रहनेवाले बंगालियों की सभा में भाषण देना है परंतु वे हिन्दी नहीं जानते, आपको बंगाली भाषा में ही बोलना होगा ।’’

सुभाष : ‘‘इतने साल यहाँ रहकर भी ये लोग अपनी राष्ट—भाषा नहीं सीख पाये तो इसमें मेरा क्या दोष है ? मैं तो हिन्दी में ही बोलूँगा ।’’

‘प्रत्युत्पन्न मति’ के धनी सुभाष

नेताजी बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे । आई.सी.एस. की परीक्षा में साक्षात्कार (इंटरव्यू) के समय एक अंग्रेज अधिकारी ने अँगूठी दिखाकर सुभाष बाबू से पूछा : ‘‘क्या तुम इस अँगूठी में से निकल सकते हो ?’’

तुरंत उत्तर मिला : ‘‘जी हाँ, निकल सकता हूँ ।’’

‘‘कैसे... ?’’

सुभाष बाबू ने कागज की एक पर्ची पर अपना नाम लिखा और उसे मोड़कर अँगूठी में से आर-पार निकाल दिया । वह अधिकारी भारतीय मेधा की त्वरित निर्णयशक्ति अथवा प्रत्युत्पन्न मति (तत्काल सही जवाब या प्रतिक्रिया देने में सक्षम मति) देखकर दंग रह गया ।

वह स्तब्ध होकर देखती ही रही...

जब सुभाषचन्द्र अविवाहित थे एवं विदेशों में घूम-घूमकर आजाद हिन्द फौज को मजबूत कर रहे थे, उन दिनों एक खूबसूरत विदेशी महिला पत्रकार ने उनसे पूछा : ‘‘क्या आप उम्रभर कुँवारे ही रहेंगे ?’’

नेताजी मुस्कराते हुए बोले : ‘‘शादी तो मैं कर लेता लेकिन मेरा माँगा हुआ दहेज कोई देने को तैयार नहीं होगा ।’’

‘‘ऐसी क्या माँग है जो कोई पूरी नहीं कर सकता ? अपनी बेटी आपके साथ ब्याहने के लिए कोई भी बड़े-से-बड़ा दहेज दे सकता है ।’’

‘‘मुझे दहेज में अपने वतन की आजादी चाहिए । बोलो कौन देगा ?’’

वह विदेशी पत्रकार कुछ समय तक स्तब्ध होकर उनकी ओर देखती ही रही । धन, सौंदर्य एवं व्यक्तिगत सुख के प्रति सुभाषचन्द्र की विरक्तता देख के महिला के मन में उनके प्रति बहुत आदर एवं विस्मय उत्पन्न हुआ । उसका सर उनके सम्मुख सम्मान व आदर भाव से झुक गया ।

नेताजी का अपने देश व संस्कृति के प्रति प्रेम, समर्पण, निष्ठा हर भारतवासी के लिए प्रेरणादायी है ।