शौच का अर्थ है शुद्धि । शुद्धि दो प्रकार की होती है : आंतर शुद्धि और बाह्य शुद्धि ।
बाह्य शुद्धि तो साबुन, मिट्टी, पानी से होती है और आंतर शुद्धि होती है राग, द्वेष, वासना आदि के अभाव से । जिनकी बाह्य शुद्धि होती है, उनको आंतर शुद्धि करने में सहायता मिलती है । पतंजलि महाराज कहते हैं कि शरीर को शुद्ध रखने से वैराग्य का जन्म होता है । शरीर को शुद्ध रखने से वैराग्य का जन्म कैसे ? जिसमें शारीरिक शुद्धि होती है उसको अपने शरीर की गंदगी का ज्ञान हो जाता है । जैसी गंदगी अपने शरीर में भरी है, ऐसी ही गंदगी दूसरों के शरीर में भी भरी है । अतः अपने शरीर में अहंता और दूसरों के शरीर के साथ विकार भोगने की ममता शिथिल हो जाती है । हृदय में छुपा हुआ आनंदस्वरूप चैतन्य, ईश्वर, परमात्मा हमारा लक्ष्य है - इस ज्ञान में वे लग जाते हैं ।
पतंजलि महाराज कहते हैं :
शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ।
‘शौच से अपने अंगों से घृणा होती है और दूसरों से संसर्ग का अभाव होता है ।’
(पातंजलि योगदर्शन, साधनापाद : 40)
शौच (आंतर-बाह्य शुद्धि) से शरीर में आसक्ति कम होती है । शरीर से निकलनेवाली गंदगी से घृणा होकर आदमी का चित्त वासना से निर्मुक्त होने लगता है ।’’
प्रातर्विधिसंबंधी लाभकारी बातें
शौच कब जाना और कैसे जाना यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि जिसका पेट ठीक से साफ नहीं होता, उसका सारा दिन खराब जाता है, मन अशांत रहता है, भूख नहीं लगती तथा शरीर में कई बीमारियाँ घर कर लेती हैं । पूज्य बापूजी कहते हैं कि ‘‘प्रातः 5 से 7 बजे के समय बड़ी आँत विशेष रूप से क्रियाशील होती है । जो व्यक्ति इस समय भी सोते रहते हैं या मल-विसर्जन नहीं करते, उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं । इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं । अतः प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग कर देना चाहिए ।
सुबह पानी पी के फिर शौच जायें तो पेट एकदम अच्छे-से साफ होगा । शौच जाने से पूर्व सिर को ढकना चाहिए । आपका सिर और कान ढक जायें ऐसी कोई टोपी शौचालय के बाहर रख दें और शौच जाते समय उसे पहन लें । इससे रक्त तथा वायु की गति अधोमुखी हो जाती है, जिससे मल-त्याग में सहायता मिलती है और अपवित्र मल के कीटाणुओं से शरीर के सिर आदि उत्तम तथा पवित्र अंगों की रक्षा होती है । इस समय दाँत भींचकर रखने से दाँत मजबूत बनते हैं ।
ऋषियों ने कैसी सूक्ष्म खोज की है ! पहले के जमाने में लोग ऋषियों के इन निर्देशों का पालन करते थे, इसी कारण सौ-सौ साल जीते थे । आज के लोग तो जाँघों के बल, जैसे कुर्सी पर बैठा जाता है, ऐसे ही कमोड (पाश्चात्य पद्धति का शौचालय) पर बैठकर पेट साफ करते हैं । उनका पेट साफ नहीं होता, इससे नुकसान होता है । उनको पता ही नहीं कि शौच के समय आँतों पर दबाव पड़ना चाहिए, तभी पेट अच्छी तरह से साफ होगा । शौचालय सादा अर्थात् जमीन पर पायदानवाला होना चाहिए । शौच के समय सर्वप्रथम शरीर का वजन बायें पैर पर अधिक रखें, फिर दायें पैर पर वजन बढ़ाते-बढ़ाते दोनों पैरों पर समान कर दें । इससे आँतों पर दबाव पड़ेगा एवं उनकी कसरत हो जायेगी और पेट ठीक से साफ हो जायेगा ।
जिस समय नासिका का जो स्वर चलता है, उस समय तुम्हारे शरीर पर उसी स्वर का प्रभाव होता है । हमारे ऋषियों ने इस विषय में बहुत सुंदर खोज की है । दायाँ स्वर चलते समय मल-त्याग करने से एवं बायाँ स्वर चलते समय मूत्र-त्याग करने से स्वास्थ्य की रक्षा होती है ।’’
लघुशंका (पेशाब) करने का सही ढंग सिखाया
भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही बैठकर लघुशंका करने की रीति थी । परंतु पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से लोग यह भूल गये । पंजों के बल बैठकर मूत्र-त्याग करने से मूत्राशय (यूरीनरी ब्लेडर) पूरी तरह रिक्त हो जाता है । जबकि खड़े-खड़े मूत्र-त्याग करने से मूत्राशय में कुछ मात्रा में मूत्र शेष (ीशलळर्वीरश्र र्ीीळपश) रह जाता है, इससे मूत्राशय के दूषित होने की और पथरी होने की सम्भावना होती है । पूज्य बापूजी कहते हैं : ‘‘लघुशंका पंजों के बल बैठकर ही करनी चाहिए क्योंकि खड़े-खड़े पेशाब करने से धातु क्षीण होती है और वीर्यनाश होता है । पाश्चात्य जगत के अंधानुकरण से धातु क्षीण होती है और बच्चे भी कमजोर पैदा होते हैं ।
शौच तथा लघुशंका के समय कुछ लोग मुँह से श्वास लेते हैं । इससे श्वासनली और फेफड़ों में बीमारी के कीटाणु घुस जाते हैं एवं तकलीफ सहनी पड़ती है । अतः श्वास सदैव नाक से ही लेना चाहिए ।’’