Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ऐसे मनायें होली !

होलिका के दिनों में एकादशी से लेकर दूज तक 20 दिन का उत्सव मनाना चाहिए । इन दिनों में बालकों व युवकों को सेवाकार्य ढूँढ़ लेना चाहिए । जो शराब पीते हैं ऐसों को समझायें और उनको भी अपने साथ लेकर प्रभातफेरी निकालें । प्रभात में सात्त्विक वातावरण का भी असर मिलेगा, हरिनाम के कीर्तन का भी असर मिलेगा । ‘यह उत्सव दिल के भीतर के आनंद की, रामनाम की प्यालियाँ पीने का उत्सव है न कि अल्कोहल का जहर पीकर अपना खानदान बरबाद करने का उत्सव है ।’ - ऐसा प्रेमपूर्वक समझा के वे बालक और युवा दूसरे बालकों और युवाओं को सुमार्ग में लगाने की सेवा कर सकते हैं ।

माइयाँ (महिलाएँ) प्रभात को होली-उत्सव के गीत गाकर कुटुम्ब में उत्साह भर सकती हैं और भाई लोग जो मान्यताओं का कूड़ा-करकट एकत्र हुआ है, उसे इस दिन जलाकर नये जीवन की शुरुआत करने का संकल्प कर सकते हैं । इन दिनों में भागवत, रामायण की कथा, महापुरुषों का जीवन-चरित्र आदि पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना हितकर है ।

होली के बाद पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश सीधा पड़ता है और दिन बड़ा होने के कारण शरीर में जो कफ है, वह पिघल-पिघल के जठर में आता है, भूख कम हो जाती है । हमारे शरीर की सप्तधातुओं और सप्तरंगों में क्षोभ शुरू होता है, जिससे पित्त बढ़ने की, स्वभाव में थोड़ा गुस्सा आने की सम्भावना होती है ।

प्राकृतिक व स्वास्थ्य के लिए हितकर रंग बनाने हेतु होली की एक रात पहले पलाश व गेंदे के फूल पानी में भिगो दिये जायें और सुबह तेल की कुछ बूँदें डालकर उनको गर्म करें तो रंग अच्छा छोड़ेंगे । फिर गेंदे के फूल हैं तो हल्दी डाल दो, पलाश के फूल हैं तो जलेबी का रंग डालना हो तो डाल दो । इन रंगों से होली खेलें तो हमारी सप्तधातुएँ व सप्तरंग संतुलित होते हैं और गर्मी पचाने की शक्ति बनी रहती है ।

यह होलिकोत्सव प्रसन्नता व आनंद लाता है; अगर समझ के उत्सव करें तो सच्चरित्रता और स्नेह भी लाता है । इस उत्सव के साथ हम लोग इस दिन यह संकल्प करें कि ‘जैसे इस उत्सव के अवसर पर ढोंढा राक्षसी जल गयी थी, ऐसे ही हमारे चित्त में जो आसुुरी वृत्तियाँ हैं, उनको हम दग्ध करें । जैसे ब्राह्मण आहुति देते हैं ऐसे ही हम काम, क्रोध, भय, शोक और चिंता की जठराग्नि में मानसिक आहुति देकर अपने में तेज प्रकट करें ।’