Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

तो उस आत्मशिव को पहचानने की जिज्ञासा और सूझबूझ बढ़ जाती है

 

‘ईशान संहिता’ में आता है :
माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । 
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ।।

‘माघ (हिन्दी कालगणना के अनुसार फाल्गुन) मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की महानिशा में करोड़ों सूर्यों के तुल्य कांतिवाले लिंगरूप आदिदेव शिव प्रकट हुए ।’
जैसे जन्माष्टमी श्रीकृष्ण का जन्मदिन है ऐसे ही महाशिवरात्रि शिवजी (शिवलिंग) का प्राकट्य दिवस है, जन्मदिन है । वैसे देखा जाय तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही अद्भुत चैतन्यशक्ति के अवर्णनीय तत्त्व हैं । शास्त्रों में यह भी आता है कि भगवान अजन्मा हैं, निर्विकार, निराकार, शिवस्वरूप हैं, मंगलस्वरूप हैं । उनका कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं । जब वे अजन्मा हैं तो फिर महाशिवरात्रि या जन्माष्टमी को उनका जन्म कैसे ? यह एक तरफ प्रश्न होता है, दूसरी तरफ समाधान मिल जाता है : 
कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।
शिव-तत्त्व कहो, चैतन्य तत्त्व कहो, आत्मतत्त्व कहो, उसकी अद्भुत लीला है, जिसका बयान करना बुद्धि का विषय नहीं है । अब बुद्धि जितना नाम-रूप में आसक्त होती है, उतना उलझ जाती है और जितना सत्य के अभिमुख होती है उतना-उतना बुद्धि का विकास होकर परब्रह्म परमात्मा में लीन होती है । सूर्य से हजारों गुना बड़े तारे कैसे गतिमान हो रहे हैं ! एक आकाशगंगा में ऐसे अनंत तारे कैसे नियमबद्ध चाल से चल रहे हैं ! सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद बारिश - ये क्रम और मनुष्य के पेट से मनुष्य तथा भैंस के पेट से भैंस की ही संतानें जन्मती हैं - यह जो नियमबद्धता अनंत-अनंत जीवों में है और अनंत-अनंत चेहरों में कोई दो चेहरे पूर्णतः एक जैसे नहीं, यह सब ईश्वर की अद्भुत लीला देखकर बुद्धि तड़ाका बोल देती है ।
ऐसी कोई अज्ञात शक्ति है जो सबका नियमन कर रही है और कई पुतलों के द्वारा करा रही है । उसे अज्ञात शक्ति कहो या ईश्वरीय शक्ति, आदिशक्ति कहो । 
कैसे हुआ शिवलिंग का प्राकट्य ?
‘शिव पुराण’ की कथा है कि ब्रह्माजी ने ऐसी अद्भुत सृष्टि की रचना की और विष्णुजी ने पालन का भार उठाया । एक समय दोनों देवों को हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन ? सृष्टिकर्ता बड़ा कि पालन करनेवाला बड़ा ? दोनों में गज-ग्राह युद्ध, बौद्धिक खिंचाव शुरू हुआ । 
इतने में एक अद्भुत लिंग प्रकट हुआ, जो आकाश और पाताल की तरफ बढ़ा । उसमें से आदेश आया कि ‘हे देवो ! जो इसका अंत पाकर जल्दी आयेगा वह दोनों में से बड़ा होगा ।’ 
ब्रह्माजी आकाश की ओर और विष्णुजी पाताल की ओर चले लेकिन उस अद्भुत तत्त्व का कोई आदि-अंत न था । इसी तत्त्व को तत्त्ववेत्ताओं ने कहा कि ‘यह परमात्मा, शिव-तत्त्व अनंत, अनादि है ।’
अनंत, अनादि माना उसका कोई अंत और आदि नहीं । आत्मसाक्षात्कार करने के बाद भी उसका कोई छोर पा ले... नहीं, बुद्धि उसमें लीन हो जाती है परंतु ‘परमात्मा इतना बड़ा है’ ऐसा नहीं कह सकती ।
आखिर दोनों देव हारे, थके... दोनों के बड़प्पन ढीले हो गये । अब स्तुति करने लगे । दो महाशक्तियों में संघर्ष हो रहा था, उस संघर्ष को शिवलिंग ने एक-दूसरे के सहयोग में परिणत कर दिया । सृष्टि में उथल-पुथल होने की घटनाओं को घटित होने से रोकने, प्राणिमात्र को बचाने की जो घड़ियाँ, जो मंगलकारी, कल्याणकारी रात्रि थी, उसको ‘महाशिवरात्रि’ कहते हैं । इस रात्रि को भक्तिभाव से जागरण किया जाय तो अमिट फल होता है ।
पूजा के प्रकार व महाशिवरात्रि का महाफल
इस दिन शिवजी को फूल या बिल्वपत्र चढ़ाये जाते हैं । जंगल में हों, बियाबान (निर्जन स्थान) में हों, कहीं भी हों, मिट्टी या रेती के शिवजी बना लिये, पत्ते-फूल तोड़ के धर दिये, पानी का छींटा मार दिया, मुँह से ही वाद्य-नाद कर दिया, बैंड-बाजे की जरूरत नहीं; शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं, अंतःकरण शुद्ध होने लगता है । तो मानना पड़ेगा कि शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं है, भावना का मूल्य है । भावे हि विद्यते देवः । 
शिवजी की प्रारम्भिक आराधना होती है पत्र-पुष्प, पंचामृत आदि से । पूजा का दूसरा ऊँचा चरण है कि शिवपूजा मानसिक की जाय - ‘जो मैं खाता-पीता हूँ वह आपको भोग लगाता हूँ । जो चलता-फिरता हूँ वह आपकी प्रदक्षिणा है और जो-जो कर्म करता हूँ, हे शिवजी ! आपको अर्पित है ।’ 
जब उस शिव-तत्त्व को चैतन्य वपु, आत्मदेव समझकर, ‘अखिल ब्रह्मांड में वह परमात्मा ही साररूप में है, बाकी उसका प्रकृति-विलास है, नाम और रूप उसकी माया है’ - ऐसा समझ के नीति के अनुसार जो कुछ व्यवहार किया जाय और अपना कर्तापन बाधित हो जाय तो उस योगी को खुली आँख समाधि का सुख मिलता है । आँख खुली होते हुए भी अदृश्य तत्त्व में, निःसंकल्प दशा में वह योगी जग जाता हैै ।
जो स्वर्ण का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करता है तो 3 पीढ़ी तक उसके यहाँ धन स्थिर रहता है । जो माणिक का बनाकर करता है उसके रोग, दरिद्रता दूर होकर धन और ऐश्वर्य बढ़ता है । इस प्रकार अलग-अलग शिवलिंगों की पूजा करने से अलग-अलग फल की प्राप्ति होती है लेकिन उन सबसे महाफल यह है कि जीव शिव-तत्त्व को प्राप्त हो जाय ।
शिव-तत्त्व को पाने के लिए हम तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । नश्वर चीज का संकल्प नहीं लेकिन शिवसंकल्प हो, मंगलकारी संकल्प हो । और मंगलकारी संकल्प यही है कि संकल्प जहाँ से उठते हैं, उस परब्रह्म परमात्मा में हमारी चित्तवृत्तियाँ विश्रांति पायें । 
दो महाशक्तियाँ अपने को कर्ता मानकर लड़ें तो संसार का कचूमर हो जाय, इसलिए संसार की दुःख की घड़ी के समय जो सच्चिदानंद निर्गुण, निराकार था, उसने साकार रूप में प्रकट होकर दोनों महाशक्तियों को अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने में लगा दिया । तो केवल वे दो महाशक्तियाँ ही शिव की नहीं हैं, हम लोग भी शिव की विभिन्न शक्तियाँ हैं । हमारा रोम-रोम भी शिव-तत्त्व से भरा है । ऐसा कोई जीव नहीं जो शिव-तत्त्व से अर्थात् परमात्मा से एक सेकंड भी दूर रह सके । हो सकता है कि 2 सेकंड के लिए मछली को मछुआरा पकड़ के किनारे पर धर दे लेकिन दुनिया में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ जो हमको उठाकर 2 सेकंड के लिए परमात्मा से अलग जगह पर रख दे; हम उस शिव-तत्त्व में इतने ओत-प्रोत हैं । 
फिर भी अहंकार हमको दूरी का एहसास कराता है जबकि अनंत की लीला में अनंत की सत्ता से सब हो रहा है, हम अपने को कर्ता मानकर उस लीला में विक्षेप कर रहे हैं । यदि इस महाशिवरात्रि से लाभान्वित होने का सौभाग्य हमें मिल जाय, इस मंगल रात्रि का हम सदुपयोग कर लें कि ‘ब्रह्मा और विष्णु जैसी शक्तियाँ भी तुम्हारे तत्त्व के आगे नतमस्तक हैं तो हमारा धन, अक्ल, हमारी जानकारी - यह सब भी तो आप ही से स्फुरित हो रहा है । तो भगवान !
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।   
तेरा तुझको देत हैं, क्या लागत है मोर ।।’
ऐसा करके यदि हम अपना अहं विसर्जित कर सकें तो उस आत्मशिव को पहचानने की जिज्ञासा और सूझबूझ बढ़ जाती है ।