शुरू-शुरू में हमने गुरुदेव के दर्शन किये, गुरुजी के चरणों में रहे, उस वक्त गुरुजी के प्रति जो आदर था, वह आदर ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझ में आती गयी, त्यों-त्यों बढ़ता गया, निष्ठा बढ़ती गयी । श्रीकृष्ण ‘नरो वा कुंजरो वा’ करवा रहे हैं लेकिन आप कृष्ण की स्थिति को समझो तो कृष्ण ऐसा नहीं कर रहे हैं । रामजी आसक्त पुरुष की नार्इं रो रहे हैं : ‘हाय सीते ! सीते !!...’ पार्वती माता को संदेह हुआ, पार्वतीजी रामजी के श्रीविग्रह को देख रही हैं परंतु शिवजी रामजी की स्थिति को जानते हैं ।
गुरु की स्थिति जितनी-जितनी समझ में आ जायेगी उतनी हमारी अपनी महानता भी विकसित होती जायेगी... उसका मतलब यह नहीं कि ‘गुरु क्या खाते हैं ? गुरु क्या पीते हैं ? गुरु किससे बात करते हैं ?’ बाहर के व्यवहार को देखोगे तो श्रद्धा सतत नहीं टिकेगी । तुम पूजा-पाठ करते हो, ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु पूजा-पाठ भी नहीं करते । जो गुरु को शरीर मानता है या केवल शरीर को गुरु मानता है, वह गुरु की स्थिति को नहीं समझ सकता ।
गुरु की स्थिति ज्यों समझेंगे, त्यों गुरु का उपदेश फुरेगा । गुरु का उपदेश, गुरु का अनुभव है, गुरु का हृदय है । गुरु का उपदेश गुरु की स्थिति है ।
मैं पहले भगवान शिव, भगवान कृष्ण, काली माता का चित्र रखता था, ध्यान-व्यान करता था लेकिन जब सद्गुरु मिले तो क्या पता अंदर से एक स्वाभाविक आकर्षण उनके प्रति हो गया । साधना के लिए जहाँ मैं सात साल रहा, अभी वहाँ जाकर मेरी साधना का कमरा खोलकर देखोगे तो मेरे गुरुदेव का ही श्रीचित्र है और मैं ध्यान करते-करते उनकी स्थिति के, उनके निकट आ जाता । वे चाहे शरीर से कितने भी दूर होते परंतु मैं भाव से, मन से उनके निकट जाता तो उनके गुण, उनके भाव और उनकी प्रेरणा ऐसी सुंदर व सुहावनी मिलती कि मैंने तो भाई ! कभी सत्संग किया ही नहीं, मेरे बाप ने भी नहीं किया, दादा ने भी नहीं किया । गुरु ने संदेशा भेजा : ‘सत्संग करो ।’ ईन-मीन-तीन पढ़ा, सत्संग क्या करूँ ? किंतु गुरु ने कहा है तो बस, चली गाड़ी... चली गाड़ी तो तुम जान रहे हो, देख रहे हो, दुनिया देख रही है ।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
मंगल तो तपस्या से हो सकता है । मंगल तो देवी-देवता, भगवान के वरदान से हो सकता है लेकिन परम मंगल भगवान के वरदान से भी नहीं होगा, ध्यान रहे । भगवान को गुरुरूप से मानोगे और भगवद्-तत्त्व में स्थिति करोगे, तभी परम मंगल होगा ।
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।
ऐसी कौन-सी माँ होगी जो बालक का बुरा चाहेगी ? ऐसे कौन-से माँ-बाप होंगे जो बालक-बालिकाओं को दबाये रखना चाहेंगे ? माँ और बाप तो चाहेंगे कि हमारे बच्चे हमसे सवाये हों । ऐसे ही सद्गुरु भी चाहेंगे कि मेरा शिष्य सत्शिष्य हो, सवाया हो लेकिन गुरुदेव में स्थिति नहीं होगी तो कभी-कभी लगेगा कि ‘देखो, मेरा यश देखकर गुरुजी नाराज हो रहे हैं ।’
मेरे को डीसा में लोग जब पूजने-मानने लग गये, जय-जयकार करने लगे और गुरुजी को पता लगा तो गुरुजी ने मेरे को डाँटा और उन लोगों को भी डाँटा : ‘‘अभी कच्चा है, परिपक्व होने दो उसको ।’’ कुछ लोगों को मेरे गुरुजी के प्रति ऐसा-वैसा भाव आ गया । लेकिन गुरुदेव की कितनी करुणा थी, वह तो हमारा ही हृदय जानता है । उन्हींकी कृपा से हम उनके चरण पकड़ पाये, रह पाये, Ÿउनके प्रति आदर रख पाये,Ÿ नहीं तो ‘इतना अपमान कर दिया, इतने लोग मान रहे हैं और मेरी वाहवाही के लिए गुरुजी को इतना बुरा लग रहा है !’ - ऐसा अगर सोचते और बेवकूफी थोड़ी साथ दे देती तो सत्यानाश कर देते अपना । नहीं, यह उनकी करुणा-कृपा है ।
हम अपना दोष खुद नहीं निकाल सकते तो उन निर्दोष-हृदय को कितना नीचे आना पड़ता है हमारा दोष देखने के लिए और हमारे दोष को निकालने के लिए उनको अपना हृदय ऐसा बनाना पड़ता है । वहाँ क्रोध नहीं है, क्रोध बनाना पड़ता है । वहाँ अशांति नहीं है, अशांति लानी पड़ती है उनको अपने हृदय में । यह उनकी कितनी करुणा-कृपा है ! वहाँ झंझट नहीं है फिर भी तेरे-मेरे का झंझट उनको लाना पड़ता है - ‘‘भाई, तुम आये ? कब आये ? कहाँ से आये ?...’’ अरे, ‘सारी दुनिया मिथ्या है, स्वप्न है, तुच्छ है, ब्रह्म में तीनों काल में सृष्टि बनी नहीं’, ऐसे अनुभव में जो विराज रहे हैं वे जरा-जरा सी बात में ध्यान रख रहे हैं, जरा-जरा बात सुनाने में भी आगे-पीछे का, सामाजिकता का ध्यान रख रहे हैं, यह उनकी कितनी कृपा है ! कितनी करुणा है !
गुरु में स्थिति हो जाय तो पता चले कि ‘अरे, हम कितना अपने-आपको ठग रहे थे !’ हम अपनी मति-गति से जो माँगेंगे... जैसे खिलौनों में खेलता हुआ बच्चा माँ-बाप से या किसी देनेवाले से क्या माँग सकता है ? कितना माँग सकता है ? ‘यह खिलौना चाहिए, यह फलाना-फलाना चाहिए...’ जब वह बुद्धिमान होता है तो समझता है कि पिता की जायदाद और पिता की जमीन-जागीर सबका मैं अधिकारी था । मैं केवल चार रुपये के खिलौने माँग रहा था, ये-वो माँग रहा था । वास्तव में पिता की सारी मिल्कियत और पिता, ये सब मेरे हैं । ऐसे ही ‘गुरु का अनुभव और गुरुदेव वास्तव में मेरे हैं । ब्रह्मांड और ब्रह्मांड के अधिष्ठाता सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा मेरे हैं’ - ऐसा अनुभव होगा और गुरु की कृपा छलकेगी ।
गुरु की स्थिति को शिष्य समझे, गुरु की स्थिति जितनी समझेगा, उतना वह महान होगा । सोचो, वे साधु पुरुष कहाँ रहते हैं ? शरीर में ? क्या वे शरीर को ‘मैं’ मानते हैं ? अथवा अपने को क्या मानते हैं ? वे जैसा अपने को जानते हैं और जहाँ अपने-आपमें स्थित हैं, वहाँ जाने का प्रयत्न करो । गुरु जाति में, सम्प्रदाय में, मत-पंथ में स्थित हैं क्या ?
नहीं, गुरुजी स्थित हैं अपने-आपमें, अपने स्वरूप में, अनंत ब्रह्मांडों के अधिष्ठान परब्रह्मस्वरूप में । ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे त्यों-त्यों हृदय निर्दोष हो जायेगा, आनंदित और ज्ञानमय हो जायेगा । ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे, त्यों-त्यों हृदय मधुर बनता जायेगा और व्यवहार करते हुए भी निर्लेपता का आनंद आने लगेगा । ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे, त्यों-त्यों उनके लिए हृदय विशाल होता जायेगा, त्यों-त्यों हृदय आदर और महानता से भरता जायेगा ।