Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

विचार की बलिहारी

‘नारद पुराण’ में आता है कि रैवत मन्वंतर में वेदमालि नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहता था । विद्वान व शास्त्रज्ञ होने पर भी उसने अनेक उपायों से यत्नपूर्वक धन एकत्र किया । अपने व्रत, तप, पाठ आदि को भी दक्षिणा लेकर दूसरों के लिए संकल्प करके दे देता तथा शास्त्रनिषिद्ध व्यक्तियों से भी दान लेने में संकोच नहीं करता था ।

‘मेरे पास कितना धन है’ यह जानने के लिए एक दिन उसने अपने धन को गिनना प्रारम्भ किया । उसका धन संख्या में बहुत ही अधिक था । धन की गणना करके वह हर्ष से फूल उठा । उस धनराशि को देखकर भगवान की कृपा से उसके चित्त में विचार का उदय हुआ, ‘मैंने नीच पुरुषों से दान ले के, न बेचने योग्य वस्तुओं का विक्रय करके तथा तपस्या आदि को बेच के यह प्रचुर धन एकत्र किया है । किंतु मेरी अत्यंत दुःसह तृष्णा अब भी शांत नहीं हुई । अहो ! मैं तो समझता हूँ, यह तृष्णा बहुत बड़ा कष्ट है । समस्त क्लेशों का कारण भी यही है । इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओं को प्राप्त कर ले तो भी पुनः दूसरी वस्तुओं की अभिलाषा करने लगता है । बुढ़ापे में मनुष्य के केश पक जाते हैं, दाँत गल जाते हैं, आँख और कान भी जीर्ण हो जाते हैं किंतु यह तृष्णा शांत नहीं होती । मेरी सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो रही हैं, बुढ़ापे ने मेरे बल को भी नष्ट कर दिया । किंतु तृष्णा तरुणी हो के और भी प्रबल हो उठी है । जिसके मन में कष्टदायिनी तृष्णा है, वह विद्वान होने पर भी मूर्ख हो जाता है, अत्यंत शांत होने पर भी महाक्रोधी हो जाता है और बुद्धिमान होने पर भी अत्यंत मूढ़बुद्धि हो जाता है ।’

पश्चात्ताप करके वेदमालि ने अपने उद्धार के लिए हृदयपूर्वक भगवान से प्रार्थना की । उसने निश्चय किया कि ‘शेष जीवन संतों की सेवा, भगवद्-ध्यान, भगवद्-ज्ञान व भगवद्-सुमिरन में लगाऊँगा ।’ अपने धन को उसने सरोवर, प्याउएँ, गौशालाएँ बनवाने, अन्नदान करने आदि में लगा दिया और किसी आत्मतृप्त संत-महात्मा की खोज एवं तपस्या के लिए नर-नारायण ऋषि के आश्रम बदरीवन की ओर चल पड़ा । वहाँ उसे मुनिश्रेष्ठ जानंति मिले ।

वेदमालि ने हाथ जोड़कर विनय से कहा : ‘‘भगवन् ! आपके दर्शन से मैं कृतकृत्य हो गया । अब ज्ञान देकर मेरा उद्धार कीजिये ।’’

मुनिश्रेष्ठ जानंति बोले : ‘‘महामते ! दूसरे की निंदा, चुगली तथा ईष्र्या, दोषदृष्टि भूलकर भी न करो । सदा परोपकार में लगे रहो । मूर्खों से मिलना-जुलना छोड़ दो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य छोड़कर लोक (जगत) को अपने आत्मा के समान देखो, इससे तुम्हें शांति मिलेगी । पाखंडपूर्ण आचार, अहंकार और क्रूरता का सर्वथा त्याग करो । सब प्राणियों पर दया तथा साधु पुरुषों की सेवा करते रहो । वेदांत का स्वाध्याय करते रहो । ऐसा करने पर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा । ज्ञान से समस्त पापों का निश्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है ।’’

मुनि के उपदेशानुसार बुद्धिमान वेदमालि ज्ञान के साधन में लगे रहे । ‘मैं ही उपाधिरहित, स्वयंप्रकाश, निर्मल ब्रह्म हूँ’- ऐसा निश्चय करने पर उन्हें परम शांति प्राप्त हो गयी । इस प्रकार गुरुकृपा से वे आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये ।