जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में अंतर
एक बार श्री उड़िया बाबाजी से पूछा गया : ‘‘जीवन्मुक्ति व विदेहमुक्ति में क्या अंतर है ?’’
उन्होंने तुरंत जवाब दिया : ‘‘अरे, अपने स्वरूप में दोनों के भेद की चर्चा ही अमंगल है ।’’
वास्तविकता यही है कि आत्मा अभेदस्वरूप है और अविद्या-निवृत्ति से उपलक्षित (सूचित) आत्मा का नाम ही मोक्ष है । अतः मुक्ति में जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति का भेद अकिंचित्कर (निरर्थक) है । इस पर भी तत्त्वज्ञान का प्रकाश जिस अंतःकरण में हुआ है, उसमें श्रद्धा, भक्ति और ध्यान के तारतम्य से ज्ञान की भूमिकाओं का वर्णन वेदांत-शास्त्र में किया जाता है ।
देह और देहभान के रहते हुए ही मुक्त पुरुष की संज्ञा जीवन्मुक्त होती है । देह के रहते हुए किंतु देह का भान न रहते हुए मुक्त पुरुष की संज्ञा विदेहमुक्त होती है । देह के न रहने पर मुक्त पुरुष का कोई व्यक्तित्व शेष नहीं रहता, अतः उसके जन्मांतर का कोई प्रसंग ही नहीं है । न च पुनरावर्तते । (छांदोग्य उपनिषद् : ८.१५.१) उसका फिर पुनरावर्तन नहीं होता । न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति (बृहदारण्यक उपनिषद् : ४.४.६) उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता ।
श्रुति का सिद्धांत यही है कि ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मुंडक उपनिषद् : ३.२.९) ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही है । ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति । (बृहदारण्यक उपनिषद् : ४.४.६) ब्रह्म होकर ही ब्रह्म को प्राप्त होता है । अतः ब्रह्मवेत्ता ज्ञान-समकाल ही मुक्त है । मुंडकोपनिषद् (३.१.४) में कहा गया है :
आत्मक्रीड आत्मरतिः
क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ।
जो आत्मा में रतिवाला है, जो आत्मा में रमण करनेवाला है और आत्मा में ही व्यवहार करनेवाला है वह ब्रह्मविदों में वरिष्ठ है । इसी श्रुति का आधार लेकर ‘श्री योगवासिष्ठ’ में ज्ञान की सप्त भूमिकाओं का वर्णन है ।
ज्ञान की सात भूमिकाएँ
शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी और तुर्यगा । शुभेच्छा श्रद्धा-प्रधान है । विचारणा श्रद्धा-भक्ति प्रधान है । तनुमानसा ध्यान-प्रधान है । सत्त्वापत्ति भक्ति-ध्यान प्रधान है । असंसक्ति में असंगता की प्रधानता है । पदार्थाभावनी में ध्यान से प्रगाढ़ हुई वृत्ति में देह का भान क्षीण हो जाता है और तुर्यगा में वह भान अभान हो जाता है ।
भूमिकाओं के लक्षण
(१) शुभेच्छा : जब मनुष्य के अंतःकरण में वैराग्यपूर्वक मुमुक्षा होती है, तब उस अवस्था को ‘शुभेच्छा’ नाम की प्रथम भूमिका जाननी चाहिए । विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा इसके लक्षण हैं ।
(२) विचारणा : वैराग्य व अभ्यास पूर्वक वेदांत-शास्त्र और वेदांतनिष्ठ सत्पुरुषों का संग तथा श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप सदाचार में प्रवृत्ति - इसे ‘विचारणा’ नाम की द्वितीय भूमिका जाननी चाहिए । इसमें गुरु-उपसदन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन आ जाते हैं ।
(३) तनुमानसा : शुभेच्छा और विचारणा के परिपाक से इन्द्रियों के विषयों में अनासक्ति हो जाना तथा मन के ‘तनु’ अर्थात् सूक्ष्म हो जाने से वृत्तियों की अपने आश्रय की ओर प्रवृत्ति हो जाना अर्थात् मन की आत्मा में शांति होने लगना यह ‘तनुमानसा’ नामक तृतीय भूमिका है । यह ध्यान अथवा निदिध्यासन का परिपाक है । केवल ‘त्वं’ पदार्थ के विवेक अथवा केवल ‘तत्’ पदार्थ के विवेक से भी, यदि वह वैराग्यपूर्वक है, तनुमानसा की स्थिति प्राप्त हो सकती है ।
ये तीनों भूमिकाएँ ज्ञान के साधन की भूमिकाएँ हैं ।