Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

वास्तविक विजय प्राप्त कर लो

12 अक्टूबर : विजयादशमी पर विशेष

12 अक्टूबर को दशहरा, विजयादशमी का पर्व है । यह पर्व मनुष्य को सांसारिक आसक्तियों पर विजय पाकर अपने आत्मस्वभाव में जगने का उत्तम संदेश देता है । पूज्य बापूजी अपने सत्संग में विजयादशमी का तात्त्विक रहस्य बड़े ही रसमय ढंग से समझाते हैं :
विजयादशमी का संदेश
विजयादशमी तुम्हें संदेश देती है कि तुम उत्साहित हो जाओ । भले संसार में दुराचार बढ़ गया है, पाप का बोलबाला है, ऐसे लोगों के पास बल व अधिकार हैं और धार्मिक, सज्जन व्यक्तियों के पास बल, सत्ता नहीं है, फिर भी डरना नहीं । यदि तुममें उत्साह है और तुम अंतरात्मा राम से जुड़ते हो तो तुम्हारी विजय होगी । पांडवों के पास कुछ नहीं था, उत्साह था और सत्य के पक्ष में थे तो विजयी हो गये । विजयादशमी संदेश देती है कि अधर्म, असात्त्विकता चाहे कितनी भी बलवान दिखे फिर भी तुम्हें रुकना नहीं चाहिए, डरना नहीं चाहिए । भय कितना भी बड़ा दिखे, असफलता कितनी भी बड़ी दिखे, शत्रु कितना भी विशालकाय दिखे फिर भी तुम हिम्मत न हारना, तुम्हारे राम में बड़ा बल है । जिनको आशा है कि हम चैतन्यस्वरूप परमात्मा की मुलाकात कर लेंगे, जिन्होंने अपने जीवन को भौतिक संसार में ही नष्ट नहीं किया है ऐसे जिज्ञासुओं के लिए संतों के अनुभवयुक्त वचन हैं :
आशावान् च पुरुषार्थी प्रसन्नहृदयः सुयः ।
विजयास्ति तस्य एव संदेशो विजयादशमी खलु ।।
‘जो आशावान, पुरुषार्थी तथा प्रसन्नहृदय है वही पुरुष विजयी होता है । निश्चित रूप से यही विजयादशमी का संदेश है ।’
जो आशावान हैं, जिन्होंने परमात्म-शांति पाने की आशा जोड़ रखी है, जिन्होंने अहंकार को परमात्मा में डुबाने की आशा जोड़ रखी है ऐसे आशावान व्यक्तियों के लिए यह विजयादशमी का संदेशा है कि विजयी होने के लिए तीन शर्तें जरूरी हैं - प्रसन्न रहो, पुरुषार्थी रहो और निराश न होओ, आशावान व निर्भय रहो । जो प्रसन्नहृदय है, जो खिन्न नहीं होता, निराश नहीं होता वह परमात्म-शांति को पा लेता है ।
विजयादशमी का तात्पर्य
जब तक हम अपने को नहीं देखते, आईने में शरीर को देखते हैं; अपने को नहीं सुनते, लोगों की बातें सुनते हैं; हम अपने (स्वरूप के) बारे में नहीं सोचते, संसार की बातें सोचते हैं तब तक हमारा जन्म-मरण चालू रहता है और हमारी विजयादशमी प्रारम्भ नहीं होती । जब हम 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और 4 अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के गीतों से अपने को बचाकर परमात्मा का गीत सुनते हैं तब हम अपने को सुनते हैं, अपने को सोचते हैं, अपने को देखते हैं । तब अपना शरीर अभिनय का एक साधनमात्र बन जाता है ।
जब ब्रह्मज्ञान होता है तो आपका हृदय आश्चर्य से भर जाता है कि ‘इतने दिन मैं कंकड़-पत्थरों को, बाह्य रीति-रिवाजों को सँभालता आया और पिछले जन्म में भी मैंने बाहर के मित्र, रीति-रिवाज, कंकड़-पत्थर, लोहे-लक्कड़ों (मकान-दुकानों) को सँभाला परंतु जिसको सँभालना चाहिए था वह यार रह गया !’ सदियों से तुम बहुत कुछ सँभालते आये हो परंतु अंत में सब छोड़ना पड़ता है । एक बार आत्मदेव को सँभाल लो फिर तुम्हारी वास्तविक विजय हो जायेगी । विजयादशमी का अर्थ है कि ‘दसों इन्द्रियों पर विजय अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को वश करके वास्तविक विजय प्राप्त कर लें ।’
मन से बार-बार पूछो : ‘परम विजय कब होगी ?’ एक विजयादशमी ने एक साल कम कर दिया, दूसरी विजयादशमी ने दूसरा साल कम कर दिया... इस प्रकार कई विजयादशमियाँ आयीं और गयीं, एक दिन ऐसा भी होगा कि विजयादशमी तो आयेगी लेकिन तुम न रहोगे । उसके पहले तुम उस यार से मिल लो जिससे मिलने के बाद उससे बिछुड़ना असम्भव है । ऐसी विजयादशमी आये कि तुम परमात्मा हो जाओ, तुम आत्मा को जान लो, तुम प्रभु के गीत गा लो ! ॐ... ॐ... ॐ...
REF: RP-381-SEPTEMBER-2024