Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

साधन अनेक, अंतिम स्वरूप एक

साधन दो प्रकार के होते हैं । एक वह जिसके द्वारा हम अपने लक्ष्य को पहचानते या प्राप्त करते हैं । दूसरा वह जो प्राप्त होता है, अनुभव होता है या लक्षित होता है अर्थात् लक्ष्य का शोधन । अंतःकरण परमात्मा की प्राप्ति का साधन है । अतः उसको शुद्ध करने के लिए जो कुछ किया जाता है उसको बहिरंग साधन कहते हैं । जैसे बंदूक से लक्ष्य पर गोली चलानी हो तो बंदूक की सफाई यह करण की शुद्धि है और लक्ष्य को ठीक-ठीक देख लेना यह लक्ष्य की शुद्धि है । करण की शुद्धि बहिरंग है और लक्ष्य की शुद्धि अंतरंग है । परमात्मप्राप्ति के लिए क्रमशः विवेक-वैराग्य तथा श्रवण-मनन आदि बहिरंग-अंतरंग होते हैं ।
अब विवेक कीजिये ! आपको अपने ही ज्ञान से जो अपना स्वरूप न मालूम पड़े उसकी ओर से मन को हटा लीजिये । आपकी दृष्टि से जो अनित्य है, जड़ है, दुःखरूप है उसमें मन लगाने की प्रवृत्ति को रोकिये । आप स्वयं तो रहेंगे ही । बस, शांति है !
इस आत्मा और अनात्मा के विवेक से अर्थात् पृथक्करण से अनात्मा के प्रति उपरामता का उदय होगा । विवेक से स्वरूप-स्थिति भी शांति है और वैराग्य यानी राग-द्वेष की निवृत्ति भी शांति ही है । अतः विवेक और वैराग्य के फल में किसी प्रकार का अंतर नहीं है । हाँ, यह अवश्य है कि पहले विवेक होगा, पीछे वैराग्य । दोनों साथ-साथ भी हो सकते हैं । परंतु ये दोनों दो नहीं हैं, फलस्वरूप से शांति ही हैं ।
आप यह मत सोचिये कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा सत्य के साक्षात्कार के लिए बहुत-से साधन करने पड़ते हैं अथवा बड़े कठिन-कठिन साधन करने पड़ते हैं । गम्भीरता से अनुभव कीजिये - मन में काम-क्रोध का न आना शम है, वह शांति ही है; इन्द्रियों का चंचल न होना दम है, वह भी तो शांति ही है; कर्म-विक्षेप की निवृत्ति उपरति है, वह भी शांति है; दुःख-विक्षेप की शांति तितिक्षा है । अभिमान-विक्षेप की शांति श्रद्धा है । अपने संकल्पों या विचारों को समेट लेने का नाम समाधान है । इनके नाम अलग-अलग हैं परंतु इनका स्वरूप शांति है । इसलिए साधक को बहुत-से नाम सुनकर घबराना नहीं चाहिए । निराश मत हो, उदास मत हो, यह तो सब एक ही निःसंकल्प जाग्रत के नाम हैं । इनमें एक ही वस्तु है, केवल शांति, शांति, शांति ! यह शांति की दशा जब निरंतर नहीं रहती और यह निश्चय हो जाता है कि ‘चित्त सदा एक स्थिति में नहीं रह पाता, नहीं रह सकता’, तब चित्त से ही मुक्त होने की तीव्र आकांक्षा जागृत होती है - आने-जानेवाले विनश्वर पदार्थों से मुक्त होकर अपने परमानंद, अद्वितीय स्वरूप के अनुभव की इच्छा अर्थात् मुमुक्षा ।
साधनों का अंतिम स्वरूप
हाँ, तो अब यह विचार कीजिये कि जब सब साधनों का अंतिम स्वरूप शांति ही है तो उनके नाम अनेक क्यों हैं ? अनेक इसलिए हैं कि शांति एक होने पर भी उसके कार्य पृथक्-पृथक् हैं । काम-क्रोध को मिटानेवाली शांति, इन्द्रियों के विक्षेप को मिटानेवाली शांति इत्यादि । अतः बहिरंग साधन इतना सुगम, इतना सरल है कि थोड़ी-सी सावधानता आपको इससे सम्पन्न बना देगी और आप सद्गुण के पास पहुँचकर अंतरंग साधन श्रवण-मनन आदि के योग्य हो जायेंगे ।
REF: ISSUE356-AUGUST-2022