Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

गुरु-तत्त्व में अडिग रहने के नये प्रयोग, नयी दिशा देनेवाला महापर्व: गुरुपूर्णिमा

गुरुपूर्णिमा : 21 जुलाई
आत्मारामी संत, सद्गुरु के हृदय में तुम जँच जाओ तो देर-सवेर तुमको ईश्वर का अमृत मिले बिना नहीं रहता । गुरु का प्रसाद हमारे जीवन में आये इसलिए राजे-महाराजे, साधक-भक्त वर्ष में गुरुपूनम को ज्यादा महत्त्व देते हैं । गुरुपूनम को गुरु-सान्निध्य से सारे वर्ष के सत्कृत्यों का पुण्य उस व्यक्ति के भाग्य में जमा होता है । यह कई साधकों का अनुभव है कि जिन्होंने गुरुपूनम, व्यासपूनम को ठीक से मना लिया उनके लिए पूरा वर्ष बड़े प्रेम, आनंद से उन्नतिदायक होता है ।
साल के सभी पर्वों से जो उन्नति होती है वह उन्नति खुले मैदान जिन महापुरुषों ने की है... दिल-ए-तस्वीर है यार ! जब भी गर्दन झुका ली, मुलाकात कर ली ।... ऐसे ब्रह्मवेत्ता गुरुओं की शरण में पहुँच जाना चाहिए । सालभर की उन्नतियों पर कृपा की मोहर लगवा लेने और अगले साल हेतु स्वाध्याय, जप का नियम-संकल्प लेने, विद्या-आरम्भ करने - ब्रह्मसूत्र जैसे सूक्ष्म ज्ञान-प्रधान ग्रंथों के अध्ययन की शुरुआत करने का दिन है गुरुपूर्णिमा ।
मानवीय मन और गुरु का मन
समाज को गुरु शिखर यानी ऊँचे शिखर पर पहुँचाने का पर्व है गुरुपूनम । गुरु यानी जो ऊँचा हो, भारी हो । जैसे भारी-में-भारी पर्वत होता है जो हवा, आँधी या तूफान से चलायमान नहीं होता, ऐसे ही गुरु का मन पर्वत जैसा अडिग होता है ।
मानवीय मन 3 प्रकार के होते हैं :
(1) पत्ते जैसा मन : सामान्य मनुष्य का मन पत्ते जैसा होता है । जरा-सा भेलपुरी का ठेला दिखे तो मुँह में पानी आ जाय, जरा-सी चूहे की आवाज आयी तो धड़ाक-धूम... हाथ में से कटोरा सरक पड़ा - यह अत्यंत विषय-विलास और संसार में रमण करनेवाले मन की दशा है ।
(2) टहनी जैसा मन : सामान्य मनुष्य की अपेक्षा नूतन भक्त का मन थोड़ा विशेष होता है । पत्ते की तरह बार-बार हिलता-डुलता नहीं है पर जैसे थोड़ा ज्यादा पवन आये और सारे पत्ते हिलते हों तो टहनियाँ भी हिलने लगती हैं, ऐसे ही विशेष परिस्थितियों में मन की तीव्र तरंगों से नूतन भक्त विचलित हो जाता है और सोचता है कि ‘मेरा क्या होगा ?’ उस समय उसको यह सोचना चाहिए कि ‘हजारों-हजारों शरीररूपी पत्ते आये और मनरूपी पवन से हिले-डुले तब भी आज तक मेरा अस्तित्व है तो अभी मेरा क्या बिगड़ेगा ?’ पत्ते जैसा मन तो थोड़े-थोड़े पवन से भी गिर जाय पर टहनी जैसा मन ज्यादा पवन आये तब हिलता है ।
(3) तने जैसा मन : ऊँचे साधक का स्वभाव तने जैसा होता है । पत्ते हिलें, टहनियाँ हिलें तब भी तना नहीं हिलता । पर यदि एक विशाल आँधी आयी हो तब अचानक तना गिर जाय ऐसा हो सकता है, ऐसे ही ऊँचा साधक विषय-विलास, विकारों में रहकर हलका जीवन बितानेवाले लोगों के कहने में रहे और लोगों की अंधी सीख का तूफान आये तो उसका मन हिल जाता है ।
परंतु गुरु का मन यानी पर्वत जैसा मन । गुरुपूर्णिमा सिखाती है कि ‘हे साधक ! तू अपने गुरु के सिद्धांत की ओर देखना और गुरु के गुरु वे आत्मदेव हैं, उनकी ओर देखना । कैसा भी आँधी-तूफान या पवन चला हो पर जैसे हिमालय, सुमेरु, अर्बुद पर्वत (राजस्थान) या गिरनार के ऊँचे शिखर अडिग रहते हैं वैसे ही तू गुरु-तत्त्व में अडिग रहना ।’ और गुरु-तत्त्व में अडिग रहने में सहायक नये-नये प्रयोग, नयी-नयी दिशा देनेवाला पर्व गुरुपूर्णिमा का पर्व है ।
साधना का नूतन प्रयोग
सुबह नहाना-धोना आदि अपना नित्य-नियम कर लिया, फिर बैठ गये जप में । गुरुमंत्र की एक माला प्राणायाम सहित जपें । मंत्र जपते समय पहले तो विद्युत के कुचालक आसन पर बैठकर खूब गहरा श्वास लो, फेफड़ों को भरो और 8-10 मनके घूम जायें उतनी देर श्वास रोके रखो । ऐसा तेज गति से नहीं मजे से 8-10 बार मंत्रजप करो फिर माला रोक दो और धीरे-धीरे श्वास छोड़ो । फिर श्वास बाहर ही रोके रखो और 7-8 बार मजे से मंत्रजप करो ।
मंत्र जपा और श्वास नहीं लिया तो नाड़ियों में श्वास न जाने से एकदम सफाई हो जायेगी । ऐसा करते-करते करीब 5-7 बार श्वास अंदर रोको और 4-5 बार बाहर रोको, इतने में माला पूरी हो जायेगी ।
ये 10-12 कुम्भक हो गये, काफी है फिर ज्यादा नहीं करना । उसके बाद गुरुमंत्र की बाकी मालाएँ करते-करते चित्त को परमात्मा में डुबाते जाना । गुरु के रूप में मेरे को मान रहे हो तो यह तुम्हारे लिए आज्ञा हो गयी ।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।
गुरुओं की सेवा क्या है ? गुरु अथवा संत हमको जो बताते हैं उस कल्याण की बात को हमने पकड़ लिया तो हमने गुरुओं की सेवा कर ली । तो इस बात को आप पकड़ लेना ।
इन बातों को ठीक से अपना बना लो
(1) गुरुमंत्र-जप का नियम : इस बात को सावधानी से समझ लें कि पतन न हो जाय इसलिए कम-से-कम 1000 बार अर्थात् 10 माला गुरुमंत्र की, परमात्मा के नाम की प्रतिदिन जपनी चाहिए । अधिक जप हो जाय तो हर्ज नहीं । फिर मंत्र जपने में उसकी संख्या पर ज्यादा जोर नहीं देना, मंत्र के अर्थ पर जोर देना है । मंत्र जपते-जपते अगर आनंद आ रहा है और माला घुमाने की इच्छा नहीं होती है तो कोई जरूरी नहीं कि माला घुमाओ परंतु इस बात में सावधान रहना कि जप करते-करते आनंद आ रहा है कि नींद आती है । कभी-कभी वैसे सोओगे तो नींद नहीं आयेगी पर ज्यों ध्यान, जप करने बैठे त्यों झोंके शुरू । तो फिर क्या करें ? उठ जायें, पानी का आचमन ले लें, जरा चलें फिर मंत्रजप कर लें ।
(2) गुरुगीता-पाठ का नियम : जितने वर्ष आपके शरीर की उम्र हुई है उतनी बार वर्ष में गुरुगीता का पूरा पाठ कर लेना चाहिए । समझो आप 40 साल के हैं तो वर्ष में 40 बार गुरुगीता के पारायण आराम से कर सकते हैं, और ज्यादा करो तो तुम्हारी मौज की बात है । इससे भक्ति की पुष्टि होगी, तत्त्व का प्राकट्य होने में मदद होगी, बहुत लाभ होगा ।
(3) सत्संग-श्रवण का नियम : एक और खास आज्ञा है कि रोज सत्संग करना । फिर चाहे 1 घंटा, आधा घंटा, 15 मिनट करो... नहीं तो चौथाई घड़ी अर्थात् 6 मिनट तो जरूर करना ।
एक सत्संग होता है आमने-सामने (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के प्रत्यक्ष सान्निध्य में), दूसरा होता है ब्रह्मवेत्ता संतों के अनुभवों के वचन जिन ग्रंथों, पवित्र पुस्तकों में हैं उनका स्वाध्याय अथवा ऑडियो-विडियो माध्यमों से सत्संग । यह तो तुम कर सकते हो; चाहे रेलगाड़ी में हो, चाहे ससुराल या मायके में हो, चाहे नौकरी पर हो । फिर 6 मिनट की जगह 7 या 15 मिनट करोगे तो और अच्छा है । एक बार पढ़ा या सुना, फिर से उसीको पढ़ो या सुनो तो कुछ और रहस्य खुलेंगे । 4 बार पढ़ा-सुना लेकिन अब 5वीं बार पढ़ा-सुना तो कुछ-न-कुछ ऐसा प्रकाश वह तुम्हारे हृदय को देगा कि तुम ऊँचे उठते जाओगे ।
इन बातों को ठीक से अपना बना लो, मनन कर लो । जैसे मेरे गुरुदेव का प्रसाद मेरे दिल में ठहर गया, ऐसे ही वेदव्यासजी और मेरे गुरुदेव का वही प्रसाद आपके दिल में ठहर जाय तो मेरा काम हो गया ।

REF: ISSUE343-JULY-2021