- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
विघ्न-बाधाओं में भी मुस्कराते, आनंद बाँटते और छिटकते हुए जीवन जियें यह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से संदेश मिलता है । श्रीकृष्ण के जीवन में तो विघ्न-बाधाओं की ऐसी भरमार थी जिसके आगे तुम्हारे-हमारे जीवन की विघ्न-बाधाएँ कोई मायने ही नहीं रखतीं । जिनके घर अवतरित होनेवाले हैं उन वसुदेव-देवकी को, माँ-बाप को जेल में जाना पड़ा है, जन्मे तो जेल में और जन्मते ही पराये घर ले जाये गये, ऐसा भयावह जीवन ! कभी पूतना आयी, कभी बकासुर आया तो कभी अघासुर आया... हजार-हजार विघ्न-बाधाएँ आयीं लेकिन श्रीकृष्ण कभी सिर पर हाथ रखकर चिंतित हो के नहीं बैठे, सदैव आनंद की बंसी बजाते रहे ।
कैसे भक्तवत्सल !
महाभारत के युद्ध में दुर्योधन के उकसाने पर भीष्म पितामह ने पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा की । पांडवों को गुप्तचरों के द्वारा खबर पड़ गयी तो बड़ी चिंता व्याप गयी । द्रौपदी भयभीत हो गयी, श्रीकृष्ण को पुकारा : ‘हे माधव ! गोविंद !...’ द्रौपदी की पुकार सुनकर मध्यरात्रि को श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे ।
द्रौपदी ने कहा : ‘‘हे माधव ! क्या तुमने सुना है कि दुष्ट दुर्योधन ने भीष्म पितामह को उकसाया है ? और उन्होंने 5 बाण लेकर प्रतिज्ञा की है कि 5 पांडव कल शाम का सूर्यास्त नहीं देखेंगे ।’’
श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए बोले : ‘‘हाँ द्रौपदी ! पता है ।’’
‘‘कन्हैया ! तुम्हें पता है और तुम हँस रहे हो ?’’
बोले : ‘‘पगली ! हँसें नहीं तो क्या दुःखी हो जायें, रोयें ? दुःख, मुसीबत आये तो प्रसन्न होंगे तब सद्निर्णय होगा, सद्बुद्धि आयेगी; डरोगे, द्वेष करोगे तो और कुबुद्धि होगी । दुःख और मुसीबत को इतना महत्त्व न दो कि आपकी शांति और मधुरता छिन जाय ।’’
ऐ हे ! पूरे विश्व के लिए क्या संदेशा दिया ! कितना सुंदर और सुहावना संदेशा है ! क्या मुसलमान को यह ज्ञान नहीं चाहिए ? ईसाई और पारसी को यह ज्ञान नहीं चाहिए ? यहूदी और इतर जाति वालों को यह ज्ञान नहीं चाहिए ? चाहिए । तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विश्वमानव के लिए प्रकाशमय दिवस है, ज्ञानमय दिवस है ।
श्रीकृष्ण ने कहा : ‘‘द्रौपदी ! दुर्योधन की पत्नी रोज सुबह ध्यानस्थ भीष्म पितामह को प्रणाम करने जाती है और वे उसे कहते हैं ‘सदा सुहागिन रहो ।’ कल प्रभात को तुम वहाँ जाना और उसके आने से पहले उन्हें प्रणाम करना, चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हिला देना ताकि पितामह को लगे कि ‘वह प्रणाम कर रही है’ । वे तो बंद आँखों से आशीर्वाद दे देते हैं, बाद में मैं सारी बागडोर सँभाल लूँगा ।’’
प्रभात में श्रीकृष्ण और द्रौपदी चल पड़े कौरवों के शिविर की ओर । श्रीकृष्ण बोले : ‘‘पगली ! तू पदत्राण पहन के जा रही है ! उनकी आवाज सुनकर कहीं पितामह आँख खोल देंगे तो बाजी बिगड़ जायेगी । ये पदत्राण मुझे दे दे ।’’
अपने पीताम्बर में भक्तानी की जूतियाँ सँभालने में सकुचाते नहीं, कैसे उदार आत्मा हैं ! मैं भक्तन को दास, भक्त मेरे मुकुटमणि । द्रौपदी गयी, प्रणाम किया और अपनी चूड़ियाँ खनका दीं । भीष्म बोले : ‘‘सदा सुहागिन रहो !’’
इतने में भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए वहाँ प्रवेश किया । उनकी हँसी सुनकर भीष्म पितामह ने आँखें खोलीं । देखा कि सामने द्रौपदी खड़ी है । वे जान गये कि यह सब श्रीकृष्ण की लीला है ।
भीष्म बोले : ‘‘प्रभु ! यह आपने क्या किया ? मैं अपने प्राण त्यागना स्वीकार कर सकता हूँ परंतु अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता हूँ ।’’
श्रीकृष्ण : ‘‘पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा तो आपने की थी किंतु द्रौपदी को वरदान भी दे दिया है ।’’
‘‘माधव ! वरदान तो दे दिया किंतु मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ । अब अगर मारता हूँ तो मेरा वरदान झूठा होता है और नहीं मारता हूँ तो मेरी प्रतिज्ञा झूठी होती है । मैं मृत्यु को स्वीकार करूँगा लेकिन मेरी प्रतिज्ञा वृथा न जाय । अब आप ही ऐसा उपाय बताइये ।’’
बोले : ‘‘उपाय सीधा है, आपने कहा था कि श्रीकृष्ण ने हथियार नहीं उठाया तो और शिखंडी मेरे सामने न आया तो कल शाम होते-होते पांडवों को यमपुरी पहुँचा दूँगा । मैंने हथियार न उठाने की जो प्रतिज्ञा की थी, मैं अपनी उस प्रतिज्ञा को तोड़ देता हूँ, मेरे भक्तराज की प्रतिज्ञा पूरी होने देता हूँ ।’’
श्रीकृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी । भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा और वरदान - दोनों सच्चे हुए और पांडव बच गये ।
कैसे हैं ये बचानेवाले ! कितनी उदारता है ! कितनी सहजता है ! कर्म करने की कितनी कुशलता है !
20 करोड़ एकादशी के समान व्रत
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उपवास अवश्य करना चाहिए । 20 करोड़ एकादशी व्रत के समान अकेला जन्माष्टमी का व्रत है । जन्माष्टमी के दिन जो भोजन करते हैं उनको 100 ब्रह्महत्याओं का पाप लगता है व उनके करोड़ों जन्मों के पुण्य नष्ट हो जाते हैं । जो लोग जन्माष्टमी का व्रत नहीं रखते वे दूसरे जन्मों में साँप आदि वीभत्स जीव-जानवरों की योनि में जंगलों में भटकते रहते हैं । जो इस दिन व्रत रखते हैं उनके घर में धन-धान्य, पुत्र-पौत्र, सुख-शांति का वास होता है और सत्पुरुषों का सान्निध्य-सत्संग होता है तो उन्हें सद्गति प्राप्त होती है ।
व्रतेन दीक्षामाप्नोति... व्रत से जीवन में दक्षता आती है, दक्षता से दृढ़ता आती है, दृढ़ता से अपने ऊपर, ईश्वर के ऊपर, शास्त्र के ऊपर निःसंदेहता आती है और निःसंदेहता से आयी सत्यसंकल्प-सिद्धि और श्रद्धा की तीव्रता भगवत्प्राप्ति कराने में सक्षम हो जाती है ।
REF: ISSUE368-AUGUST-2023