Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

बंधन तोड़कर मुक्त हो जाओ !

बंधन तोड़कर मुक्त हो जाओ !

दूसरों के साथ आपका दो प्रकार का संबंध हो सकता है :

(१) मोह का संबंध : परिवार के जिन सदस्यों पर आप अपना अधिकार मानते हैं, जिनसे सुख, सुविधा, सम्मान, सेवा, आराम, वस्तुएँ लेने की आशा रखते हैं, उनके साथ आपका ‘मोह’ का संबंध है । यदि वे आपकी आशा पूरी कर देंगे तो आपको सुख होगा और आशा पूरी नहीं करेंगे तो दुःख होगा । मोह का संबंध आपको सुख-दुःख के बंधन में फँसा देगा । सुख भोगेंगे आप अपनी इच्छा से और दुःख भोगना पड़ेगा आपको विवशता से । यह अटल सिद्धांत है कि जो सुख का भोग करेगा, उसे विवश होकर दुःख भोगना ही पड़ेगा ।

(२) प्रेम का संबंध : जिनका आप अपने पर अधिकार मानते हैं, जिनके लिए आपके हृदय में यह भावना रहती है कि आप उन्हें अधिक-से-अधिक सुख, सुविधा, सम्मान, सेवा, आराम, प्रसन्नता दें और बदले में उनसे कुछ भी न लें तो उनके साथ आपका ‘प्रेम’ का संबंध है । जब आप उनकी इच्छा पूरी कर देते हैं, उन्हें खुश देखते हैं तो आपका हृदय प्रसन्नता से भर जाता है, जब आप उनकी इच्छा पूरी नहीं कर पाते, उन्हें अप्रसन्न देखते हैं तो आपका हृदय करुणा से भर जाता है ।

दोनों संबंधों का अंतर

मोह में अपना सुख प्रधान होता है, प्रेम में दूसरों का हित व प्रसन्नता मुख्य होती है । मोह के संबंध में आप अनुभव करेंगे कि इच्छा पूरी हुई तो सुख हुआ, इच्छा पूरी नहीं हुई तो दुःख हुआ । प्रेम के संबंध में अपनी कोई इच्छा नहीं होती, हृदय में दूसरों के हित की भावना होती है । यदि वे लोग उस भावना के अनुरूप कार्य कर देते हैं तो उनकी प्रसन्नता से आपका हृदय भी प्रसन्नता से भर जाता है । यदि वे उस भावना के अनुरूप कार्य नहीं करते हैं तो आप सोचते हैं कि उन्हें दुःख होगा, उनके दुःख से आपका हृदय करुणा से भर जाता है । मोह आपको सुख-दुःख में बाँधेगा । प्रेम में ‘सुख’ के स्थान पर ‘प्रसन्नता’ व ‘दुःख’ के स्थान पर ‘करुणा’ रहेगी । सुख-दुःख बंधनकारी है । करुणा व प्रसन्नता बहुत बड़ी साधना है । मोह का संबंध सीमित लोगों के साथ होता है, प्रेम का संबंध सम्पूर्ण विश्व व विश्व के नाथ भगवान के साथ होता है ।

यदि आपके हृदय में सुख-दुःख है तो आप भोगी हैं, यदि आपके हृदय में करुणा व प्रसन्नता है तो आपके हृदय में संतत्व की सुवास है । भगवान रामजी ने स्वयं संतों का यह लक्षण बताया है :

पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ।

‘संतों को पराया दुःख देखकर दुःख (अर्थात् करुणा) और पराया सुख देख के सुख (अर्थात् प्रसन्नता) होता है ।’

(श्री रामचरितमानस, उ.कां. : ३७.१)

क्या सारा संसार आपका परिवार है ?

मोहजनित संबंध के आधार पर सम्पूर्ण संसार आपका परिवार नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण संसार की अनुकूलता-प्रतिकूलता में आप सुख-दुःख का अनुभव नहीं करते । विश्व में रोज हजारों लोग जन्मते-मरते हैं, लाखों व्यक्ति बीमार हैं, करोड़ो रुपयों की धन-सम्पत्ति आती-जाती है, करोड़ो रुपयों की लाभ-हानि होती है, हजारों दुर्घटनाएँ होती हैं पर इन्हें लेकर न आपको सुख होता है और न दुःख । इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व आपका परिवार नहीं है । हाँ, प्रेमजनित संबंध के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को आप अपना परिवार मान सकते हैं । ऐसा मानना तो आपकी साधना है, महानता है ।

आप कहाँ, किनसे बँधे हैं ?

आप क्या चाहते हैं और क्या नहीं चाहते हैं ? इसका उत्तर है आप सुख चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते क्योंकि आपका असली स्वभाव सुखस्वरूप है । आप प्रसन्नता, शांति, विश्राम चाहते हैं, परेशानी, अशांति, तनाव नहीं चाहते । आप निqश्चतता, निर्भयता व सामथ्र्य चाहते हैं, चिंता, भय व शक्तिहीनता नहीं चाहते । आप आनंदपूर्वक जीना चाहते हैं, निराशा-दुःखभरा जीवन नहीं चाहते । आपके जीवन में दुःख, चिंता, भय, निराशा, मानसिक तनाव, अशांति आदि विकार कब और किनको लेकर पैदा होते हैं ? उस शरीर, उन संबंधियों व उस सम्पत्ति को लेकर ही दुःख व चिंता होती है जिसके साथ आपका मोह का संबंध है, जिसे आप अपना परिवार मानते हैं । जिन-जिन व्यक्तियों व वस्तुओं की प्रतिकूलता में आपको दुःख होता है, आप उन्हींसे बँधे हुए हैं ।

यदि आप दुःखों, परेशानियों से हमेशा के लिए छूटना चाहते हैं तो आप मोहजनित संबंध को छोड़कर प्रेम के संबंध को महत्त्व दीजिये । ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग का आश्रय लीजिये और हर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति में सर्वेश्वर-परमेश्वर को निहार के भगवत्प्रेम को उभारिये । साथ ही थोड़ा समय असंग होने में लगाकर अपने असंग मुक्तस्वरूप को जान के मुक्त हो जाइये । फिर करुणा या प्रसन्नता का सुख पाने के लिए दूसरे को खोजने की गुलामी भी छूट जायेगी ।