Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

परिस्थितियों के असर से रहें बेअसर

अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फँसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी । जो दुनिया की ‘तू-तू, मैं-मैं’ से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से और दुनिया के सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में और जगाने में अवश्य सफल हो जाता है ।
सुविधा-असुविधा यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दुःख यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का धोखा है । इन तीनों से बच जाओ तो संसार आपके लिए नंदनवन हो जायेगा, वैकुंठ हो जायेगा । वास्तव में तुम वृत्तियों, परिस्थितियों से असंग हो, द्रष्टा, चेतन, नित्य, ज्ञानस्वरूप, निर्लेप नारायण हो । कहीं जाना नहीं है, कुछ पाना नहीं है, कुछ छोड़ना नहीं है, मरने के बाद नहीं वरन् आप जहाँ हो वहीं-के-वहीं और उसी समय चैतन्य, सुखस्वरूप, ज्ञानस्वरूप में सजग रहना है बस ! ॐकार व गुरुमंत्र का जप, सजगता व सत्कर्म और आत्मवेत्ता पुरुष की कृपा एवं सान्निध्य से परम पद में जगना आसान है ।
लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल एक बार रेल के दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहे थे । डिब्बे में भीड़भाड़ नहीं थी वरन् वे अकेले थे । इतने में स्टेशन पर गाड़ी रुकी और एक अंग्रेज माई आयी । उसने देखा कि ‘इनके पास तो खूब सामान-वामान है ।’ वह बोली : ‘‘यह सामान देकर तुम चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचाऊँगी । राज्य हमारा है और तुम ‘इंडियन’ हो । मैं तुम्हारी बुरी तरह पिटाई करवाऊँगी ।’’
जो व्यक्ति परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता वह परिस्थितियों को प्रभावित कर देता है । सरदार पटेल को युक्ति लड़ाने में देर नहीं लगी । उन्होंने माई की बात सुनी तो सही किंतु ऐसा स्वाँग किया कि मानो वे गूँगे-बहरे हैं । वे इशारे से बोले : ‘‘तुम क्या बोलती हो वह मैं नहीं सुन पा रहा हूँ । तुम जो बोलना चाहती हो वह लिखकर दे दो ।’’
उस अंग्रेज माई ने समझा कि ‘यह बहरा है, सुनता नहीं है ।’ अतः उसने लिखकर दे दिया । जब चिट्ठी सरदार के हाथ में आ गयी तो वे खूब जोर से हँसने लगे । अब माई बेचारी क्या करे ? उसने तो धमकी देना चाहा था किंतु अपने हस्ताक्षरवाली (हस्तलिखित) चिट्ठी देकर खुद ही फँस गयी ।
ऐसे ही प्रकृति माई से हस्ताक्षर करवा लो तो फिर वह क्या शोर मचायेगी ? क्या पिटाई करवायेगी और क्या तुम्हें जन्म-मरण के चक्कर में डालेगी ? इस प्रकृति माई की ये ही तीन बातें हैं : शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान । इनसे अपने को अप्रभावित रखो तो विजय तुम्हारी है । किंतु गलती यह करते हैं कि साधन भी करते हैं और असाधन भी साथ में रखते हैं । सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं । भले बने बिना भलाई खूब करते हैं और बुराई भी नहीं छोड़ते हैं । विद्वान भी होना चाहते हैं और बेवकूफी भी साथ में रखते हैं । भय भी साथ में रखते हैं और निर्भय भी होना चाहते हैं । आसक्ति साथ में रखकर अनासक्त होना चाहते हैं इसीलिए परमात्मा का पथ कठिन हो जाता है । कठिन नहीं है; परमात्मा दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं है ।
अतः अपने स्वभाव में जागो । ‘स्व’भाव अर्थात् ‘स्व’ का भाव, ‘पर’भाव नहीं । सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि ‘पर’भाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं । सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं । सुख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम हैं । अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं । हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे । अतः सदा रहनेवाले अपने इसी ‘स्व’भाव में जागो ।
शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दुःखाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव - इनको आप सत्य मत मानिये । ये तो आने-जानेवाले हैं, बनने-मिटनेवाले हैं, बदलनेवाले हैं लेकिन अपने ‘स्व’भाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा । जितना-जितना व्यक्ति जाने-अनजाने ‘स्व’ के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव से अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही आत्मस्वभाव में विश्रांति पाकर पुनीत होता है ।

REF: RISHIPRASAD-JUNE-2021-ISSUE-342