Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अडिग रहा वह शूरमा, पाया अविचल धाम

अडिग रहा वह शूरमा, पाया अविचल धाम

एक बार संत चरनदासजी के शिष्य गोसार्इं जुगतानंदजी चुरू (राज.) पधारे । उनकासत्संग व दर्शन पाकर वहाँ के शासक काँधलोत राठौड़ वंश के हरिसिंहजी उनके शरणागत हो गये । उन्हींके वंश के एक नवयुवक ने भी जुगतानंदजी से दीक्षा ले ली । गुरुकृपा से उसका वैराग्य जागा और वह संसार से उदासीन रहकर हर समय जप व ध्यान में तल्लीन रहने लगा । उसका वैराग्य जब कुछ शिथिल पड़ता तो वह संत चरनदासजी के पद-पदावलियों को पढ़ता । उनके पद विवेक-वैराग्य जगाते, जिससे उस नवयुवक का मन नयी शक्ति व उत्साह के साथ पुनः भजन में लग जाता ।

नवयुवक के माता-पिता को बेटे की स्थिति देख चिंता हुई, उन्होंने उसका विवाह कर देना चाहा । वे उसे अनेकों महापुरुषों के उदाहरण व शास्त्र-वचनों के प्रमाण दे-दे के विवाह के लिए राजी करने की कोशिश करते किंतु युवक का वैराग्य बड़ा तीव्र था ।

माता-पिता ने युक्ति से उसका विवाह कर दिया । विवाह के दूसरे दिन ही अर्धरात्रि में वह घर से निकल गया और अपने गुरुदेव के पास दिल्ली जा पहुँचा ।

दूसरे दिन प्रातः उसे घर में न देख हाहाकार मच गया । चुरू में चारों ओर भाग-दौड़ करने पर जब वह कहीं न मिला तो माता-पिता गुरुजी के आश्रम पहुँच गये । अपने बेटे को वहाँ देख वे रो-रोकर गुरुजी से प्रार्थना करने लगे कि ‘‘इसे वापस भेज दो ।’’ गुरुजी ने कहा : ‘‘बेटा ! तुम घर जाओ । घर जाकर भजन करो ।’’

वह गुरुजी की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका । वह माता-पिता के साथ चला गया । उसने गुरुआज्ञा का पूरी तरह पालन किया । घर में रहकर भजन करने लगा पर खाना-पीना बंद कर दिया । उसके माता-पिता उसे समझाने लगे किंतु वह उलटा अपने माता-पिता को कहता : ‘‘घर में आग लगी हो और कोई आपसे कहे खाने को तो आप बैठे-बैठे खाना खायेंगे या घर से बाहर निकल के किसी सुरक्षित स्थान पर जाने की चेष्टा करेंगे ? संसार में आग लगी है । महाकाल की प्रचंड अग्नि फैल-फैलकर प्राणियों को भस्मीभूत करती जा रही है । न जाने कौन, कब उसके लपेटे में आ जाय ? गुरुदेव के शीतल चरणों को छोड़ ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ जीव सुरक्षित रह सके । पर आप लोग मोहवश संसार से चिपके हुए हैं, मुझे भी चिपकाये रखना चाहते हैं ।’’

कई दिन हो गये उसे निराहार रहते । उसका शरीर कृश होता गया । माता-पिता को भय हुआ कि कहीं उसके प्राण ही न निकल जायें । तब उन्होंने कहा : ‘‘अच्छा बेटा ! यदि तुम्हारा यही निश्चय है कि तुम गुरुदेव की शरण में रहकर भजन करोगे तो भले ही उनके पास चले जाओ । जहाँ भी रहो, सुख से रहो । भगवान तुम्हारा मंगल करें ।’’

लड़के ने कहा : ‘‘मुझे तो गुरुदेव की आज्ञा है घर पर रहकर ही भजन करने की । मैं उनकी आज्ञा के बगैर और कहीं नहीं जाऊँगा ।’’

हारकर पिता ने गुरुदेव के पास एक आदमी द्वारा समाचार भेजा । गुरुदेव की आज्ञा मिलते ही वह माता-पिता को प्रणाम कर प्रसन्न मन से गुरुदेव के पास चल दिया ।

वह जब गुरुदेव के आश्रम पहुँचा तो रात्रि अधिक हो गयी थी और बरसात हो रही थी । आश्रम का दरवाजा बंद हो गया था । गुरुदेव को नींद से जगाता कैसे ? पूरी रात वह भीगते हुए बाहर ही खड़ा रहा ।

प्रातः होते ही वह गुरुदेव के चरणों में जा गिरा । गुरुदेव ने उसे हृदय से लगा लिया और उसे विरक्त वेश दिया और नाम रखा अडिगदास । क्योंकि वह अपने संकल्प पर दृढ़ व अडिग रहा था और गुरुदेव उसकी दृढ़ता से बहुत प्रसन्न थे ।

अडिगदासजी की गुरुनिष्ठा अद्वितीय थी । गुरुनिष्ठा के बल पर ही उन्हें भगवत्प्राप्ति हुई । उन्होंने अपने कई दोहों में गुरुकृपा का वर्णन इस प्रकार किया है :

धन धन सत गुरुदेवजी, अनन्त किया उपकार ।

‘अडिगदास’ भवसिन्धु सूँ, सहज लगाया पार ।।

दया शील संतोष दै, प्रेम भक्ति हरि ध्यान ।

‘अडिगदास’ सतगुरु कृपा, पाया पद निर्वान ।।

छिन छिन१ सतगुरु कृपा करि, सार सुनायो नाम ।

‘अडिगदास’ तिह प्रताप तें, पायो अविचल धाम ।।

अडिगदासजी के भजनों में साधकों के लिए अडिग रहने का बहुमूल्य उपदेश है । उनका कहना है कि भजन में शूर और सती की भाँति अडिग रहना चाहिए । जैसे शूर रणभूमि में पीछे मुड़कर अपने बंधु-बांधवों की ओर नहीं देखता, जैसे सती पीछे मुड़ के संसार की ओर नहीं देखती, वैसे ही साधक को भी संसार की ओर दृष्टि न रख के अपने सद्गुरु की ओर केन्द्रित रखनी चाहिए । भजन में अडिग रहने से भगवान मिलते हैं, डगमग-डगमग करने से नहीं मिलते :

‘अडिगदास’ अडिग रहो, डिगमिग डिगमिग छाँड ।

टेक२ गहो हरि-भक्ति की, सूर सती ज्यों मांड ।।

‘अडिगदास’ अडिग रहो, ज्यों सूरा रणखेत ।

पीठ फेर देखै नहीं, तजे न हरि का हेत ।।