आसक्ति कुछ भी करवा लेती है किंतु परमात्म-प्रीति वही करवाती है जिसमें सबका भला है । आसक्ति अनित्य है, प्रीति नित्य है । जीवात्मा नित्य है इसलिए उसको परमात्मप्रीति भी नित्य ही सुख देनेवाली होनी चाहिए । आसक्ति नित्य सुख नहीं दे सकती । काम-विकार का, सूँघने का, चखने का, वाहवाही सुनने का सुख सतत नहीं रह सकता लेकिन सुखस्वरूप अपना-आपा कभी एक क्षण के लिए भी अपने से वियोग नहीं कर सकता है । प्रीति दिन-दिन बढ़ती है और आसक्ति में कलह आदि के ज्वालामुखी फूटते रहते हैं ।
प्रीति भगवान श्रीरामजी और सीताजी की थी । रामजी ने कड़े कदम उठाये तो भी तलाक की माँग सीताजी नहीं करतीं । और धर्मपालन में सीताजी ऐसी कि आहा !... जब अशोक वाटिका में हनुमानजी ने देखा कि सीताजी राक्षसियों के बीच कैसे जी रही हैं, राक्षसियाँ ताना मारती हैं और सीताजी से कैसा व्यवहार करती हैं तो हनुमानजी से सहा नहीं गया, बोले : ‘‘माँ ! आप इतनी पतली-दुबली, हाड़-पिंजर-सी हो गयी हैं । ये राक्षसियाँ आपके साथ इतनी ताड़नाभरा व्यवहार कर रही हैं और आपको मानसिक त्रास दे रही हैं !
मैं आपका बेटा हूँ । माँ ! आज्ञा करो । मैं अभी-अभी अपने कंधे पर बिठाकर आपको रामजी के चरणों में पहुँचा दूँ और आप यह न सोचिये कि ये राक्षस देख लेंगे, विरोध करेंगे... मैं उन मच्छरों से निपट लूँगा ।’’
सीताजी जानती थीं कि ‘यह मेरा पवनसुत पूर्ण समर्थ है । सुरसा के मुँह से घूमकर, विराट रूप दिखा के आ गया... यह कोई साधारण नहीं है । और मेरे पति का विश्वसनीय है, उन्होंने अँगूठी इसीके हाथ से भेजी है ।’ फिर भी सीताजी हनुमानजी के साथ नहीं जातीं ।
सीताजी के जीवन में धर्मपालन है । कठिनाई होते हुए भी जो धर्म पर टिका रहे वही तो धर्मात्मा है । अनुकूलता आयी तो धर्म पाला और प्रतिकूलता आयी तो ‘ही ही ही...’ (दाँत निकाल दिये) तो उससे धर्म का निखार नहीं आता जितना कठिनाई में भी धर्म-अनुरूप अपना कर्तव्य पाले तो आता है ।
सीताजी कहती हैं : ‘‘हनुमान ! रावण साधुवेश में आया था । मैं भिक्षा देने के निमित्त ही लक्ष्मण-रेखा लाँघकर आयी थी । श्रीरामजी नहीं थे और भैया लक्ष्मण भी नहीं थे, रावण बलात् मुझे उठाकर ले आया तभी मुझे पर-पुरुष का स्पर्श हुआ । मैं उस समय विवश थी । अभी मैं जानबूझकर तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती हूँ, सती के लिए यह अधर्म होगा । मैं कष्ट सहूँगी लेकिन अधर्म से रामजी के चरणों में नहीं जाऊँगी ।
और तुम कहो कि ‘रावण उठाकर ले आया तो आप अभी अपने बेटे के कंधे पर बैठ चलो ।’ नहीं !
रावण मुझे चुरा के लाया, अब हनुमान मुझे चुरा के ले जाय तो रावण ने अधर्म किया और हम अधर्म का प्रत्युत्तर अधर्म से देंगे ? पवनसुत ! मेरे लाल ! यशस्वी बनो बेटे ! जुग-जुग जियो सपूत !! यह अधर्म क्यों करेंगे हम ? थोड़ा कष्ट सह लूँगी तो क्या बिगड़ता है ! मेरी पीड़ाएँ देखकर तुम्हारा हृदय द्रवित होता है किंतु ये पीड़ाएँ तो शरीर और मन को होती हैं । मैं तो रामजी की हूँ और ‘राम-राम’ रटते ही दशरथनंदन राम और रोम-रोम में रमे राम के रस में भी तो मैं तृप्त हो रही हूँ । अपने कर्तव्यपालन का संतोष भी मुझे मिल रहा है न !
श्रीरामजी का कर्तव्य है कि वे रावण के साथ युद्ध करें और इससे असुरों का नाश करने का उनका संकल्प भी पूरा हो जायेगा । श्रीरामजी के कार्य में मैं सहभागी बनूँगी । पीड़ा से ऐसे ही भाग के रामजी के कार्य में मैं विघ्न डालनेवाली कैसे बन सकती हूँ ?
मेरे लाल ! तुम मेरी पीड़ा देखकर द्रवित होते हो परंतु मेरे धर्मपालन को देख के गद्गद क्यों नहीं होते ? तुम धर्मात्मा श्रीराम के अनुचर हो न ! तुम ऐसी बात क्यों कहते हो ?’’
अब हनुमानजी क्या कहें ! सिर झुकाकर माँ के चरण अपने हृदय में धारण कर रहे हैं कि ‘मैं धन्य हूँ जो ऐसी धर्ममूर्ति माँ सीता की सेवा व दर्शन, श्रीरामजी की सेवा व दर्शन पा रहा हूँ और अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति की सेवा तथा वेदों के प्रकाश धर्मात्मास्वरूप राम के काज में लगकर समाज को एक सर्वांगीण विकास का सूर्योदय देने में मैं भागीदार बन रहा हूँ । सीतारामजी की जय हो !’
धर्म एक-एक को चमका देता है, उन्नत कर देता है । माँ को गिड़गिड़ाना पड़े, ‘बेटा ! जरा यह कर ले... बेटी ! जरा यह कर दे... ।’ नहीं । बेटे ! तुम कितने भी प्रमाणपत्र ले आओ, कितना भी पदोन्नत हो जाओ किंतु तुम्हारे जीवन में अगर कठिनाई सहकर भी धर्म पालने की रुचि नहीं है तो सच्चा विकास नहीं है ।
यतो धर्मस्ततो जयः । यतो धर्मस्ततो अभ्युदयः ।
‘जहाँ धर्म है वहीं विजय है, जहाँ धर्म है वहीं (वास्तविक) उन्नति है ।’
REF: ISSUE336-DECEMBER-2020