श्री रामचरितमानस में भगवान श्रीरामजी नवधा भक्ति के प्रसंग में भक्तिमती शबरी से कहते हैं :
‘‘गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
शबरी ! अभिमानशून्य होकर गुरुदेव की सेवा करना यह मेरी तीसरी भक्ति है ।’’
शबरीजी का जीवन तो गुरुसेवा में ही बीता अतः यह उपदेश उनको निमित्त बनाकर हम सबके कल्याण के लिए है । हम जितना इसके मर्म को समझ लेंगे, जीवन में उतनी ही आध्यात्मिकता का अनुभव भी करेंगे ।
अमान होकर गुरु की सेवा करना यही भक्ति है । ‘अमान’ का अर्थ है अभिमानरहित होना । अभिमान की भावना से मुक्त हुए बिना गुरु की सेवा करना यह प्रदर्शनमात्र है, भक्ति नहीं । और ऐसी सेवा का परिणाम कल्याणकारी नहीं हो सकता ।
रामचरितमानस में ऐसी गुरुभक्ति का दृष्टांत रावण है ।
रावण भगवान शंकर का शिष्य था । उसने स्तुति में शिवतांडव स्तोत्र की रचना की, पूजा में अपने सिर काटकर चढ़ा दिये थे । रावण स्वयं इस घटना का बार-बार स्मरण दिलाता है । पर इसके पीछे उसकी गुरुभक्ति न होकर केवल यह दिखाने की चेष्टा है कि वह भगवान शंकर का कितना महानतम शिष्य है ।
भुशुंडिजी ने भी गुरु किये थे । भुशुंडिजी गरुड़जी से गुरुजी के विषय में जो भावोद्गार व्यक्त करते हैं वह बड़ा मर्मस्पर्शी है ।
गरुड़जी ने भुशुंडिजी से पूछा : ‘‘अब तो आपके जीवन में परिपूर्णता आ गयी है अतः आपको किसी दुःख की अनुभूति तो नहीं होती होगी ?’’
उन्होंने कहा : ‘‘इतनी उच्च और कल्याणकारी स्थिति प्राप्त करने के बाद भी जब गुरुदेव के स्वभाव का स्मरण आता है तो
एक सूल मोहि बिसर न काऊ ।
गुर कर कोमल सील सुभाऊ ।। (श्री रामचरित. उ.कां. : 109.1)
मैं शोकमग्न हो जाता हूँ । गुरुदेव इतने शीलवान, कोमलहृदय और उदार स्वभाव के थे कि मेरे द्वारा उपेक्षा और अनादर किये जाने पर भी वे मेरे हित की ही बात सोचते रहे । यहाँ तक कि मेरी धृष्टता से भगवान शंकर तक क्रोधित हो गये और मुझे शाप दे दिया । पर धन्य हैं गुरुदेव, जिन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न करके शाप को वरदान में परिवर्तित करा दिया । यदि मेरे गुरुदेव ने यह कृपा न की होती तो मेरा जीवन ऐसा नहीं होता जैसा आज दिखाई दे रहा है ।’’
रावण से जब किसीने पूछा कि ‘‘तुमने कैलाश पर्वत को ऊपर क्यों उठा लिया ?’’
तो रावण ने जो कहा उसमें भी अहंकार ही था । रावण ने कहा : ‘‘मैंने सारे संसार को अपनी भुजा के बल से तौल लिया । मेरी भुजा का बल भारी रहा और इस तरह मैंने सबको जीत लिया । संसार-विजय के बाद मैं कैलाश पर्वत पर भी गया । अब यदि मैं शंकरजी से कहता कि ‘मैंने सबको हरा दिया, आपसे भी जरा दो हाथ हो जाय’ तो यह अच्छा नहीं लगता । अतः मैंने सोचा कि ‘क्यों न इनको ही कैलाश पर्वतसहित ऊपर उठा लिया जाय, जिससे स्वतः सिद्ध हो जायेगा कि कौन हलका है और कौन भारी है ।’’
वस्तुतः रावण ने श्रद्धा से भगवान शंकर को नहीं उठाया अपितु वह तो अपनी भुजा के बल को ही तौल रहा था :
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ।।
और वह यह दिखाना चाहता था कि उसकी तुलना में गुरुदेव भी हलके सिद्ध होते हैं ।
‘गुरु’ का अर्थ होता है ‘भारी’ । इसका अभिप्राय है कि शिष्य अपने-आपको लघु माने और गुरु को श्रेष्ठ माने पर रावण तो अपने-आपको श्रेष्ठ और गुरु को लघु सिद्ध करना चाहता है । ऐसा व्यक्ति गुरु के द्वारा कल्याण प्राप्त कर सके यह सम्भव नहीं है ।
‘अमान’ होकर गुरु की सेवा करने के पीछे यही संकेत है कि शिष्य अभिमान से मुक्त हो के गुरुदेव से कहे कि ‘महाराज ! मैं तो एक ऐसा पात्र हूँ जो बिल्कुल खाली है, आप कृपा करें और अपने उपदेश के द्वारा इसे भर दें, मुझे पूर्णता प्रदान करें ।’
गुरु की सेवा करते समय यदि शिष्य यह अनुभव करे कि ‘मैं सेवा करके धन्य हो रहा हूँ’ तो वह सही दिशा में बढ़ रहा है पर यदि वह यह भाव रखे कि ‘मैं ही गुरुदेव को सुप्रसिद्ध कर रहा हूँ’ तो यह उस शिष्य के लिए दुर्भाग्य की बात है ।
अभिमानपूर्ण इसी वृत्ति के कारण रावण स्वयं तपस्वी, निपुण योगाभ्यासी व बलवान होते हुए और भगवान शंकर जैसे विश्व के महानतम गुरु को पाकर भी कल्याण का अधिकारी नहीं बन पाता । रावण की सारी पूजा-अर्चना व्यर्थ चली जाती है ।
रावण ने भगवान शंकर से कहा : ‘‘मैं सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्मांड का स्वामी हूँ । मैं चाहता हूँ कि ‘आपकी पूजा करूँ’ पर क्या करूँ ? मेरे पास तो समय ही नहीं रहता । अतः आप स्वयं ही मेरे पास आकर अपनी पूजा करा लिया करें ।’’
भगवान शंकर ने दया-करुणावश उसकी प्रार्थना स्वीकार की । रावण यह देखकर मन-ही-मन सोचता था कि ‘ये मुझसे डरते हैं तभी तो यहाँ चले आते हैं ।’ अब इसे रावण का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य ? गुरुजी को शिष्य की नीचाई के कारण उसका कल्याण करने के लिए दया-करुणावश अपनी ऊँचाई से नीचे आना पड़े और शिष्य इससे अपने-आपको गौरवान्वित अनुभव करे, इससे बड़ा दुर्भाग्य शिष्य के लिए क्या हो सकता है !
श्रेष्ठ गुरु करने के बाद भी कुछ लोगों को कोई विशेष लाभ नहीं होता । इसका एकमात्र कारण उनका अभिमान ही है । अभिमान से भरे होने के कारण ही गुरुकृपा और ज्ञान-उपदेश को ग्रहण करने के लिए जो पात्रता चाहिए वह उनके जीवन में नहीं आ पाती ।
REF: ISSUE330-JUNE-2020