Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

बुद्धिमान् साधक ! सावधान....

जिन्होंने आत्मविद्या का अनुभव ही नहीं किया, वे समाज में प्रचार करते फिरते हैं कि गुरु की क्या आवश्यकता है ? गुरु करना निरर्थक है। वे बेचारे किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु के मार्गदर्शन में चलकर आत्मविद्या का अनुभव करते तो ये शब्द कदापि नहीं कहते । स्वामी शिवानंदजी ने सत्य के कंटकमय मार्ग में गुरु को एकमात्र आश्रय बताते हुए कहा है : "रसोई सीखने के लिए आपको सिखानेवाले की आवश्यकता पड़ती है, विज्ञान सीखने के लिए आपको प्राध्यापक की आवश्यकता पड़ती है, कोई भी कला सीखने के लिए आपको गुरु चाहिए, तो क्या आत्मविद्या सीखने के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है ? अगर आपको सद्गुरु प्राप्त नहीं होंगे तो आध्यात्मिक मार्ग में आप आगे नहीं बढ़ सकोगे। जिनके सान्निध्य में आपको आध्यात्मिक उन्नति महसूस हो, जिनके वक्तव्य से आपको प्रेरणा मिले, जो आपके संशयों को दूर कर सकें, जो काम, क्रोध, लोभ से मुक्त हों, जो निःस्वार्थ हों, प्रेम बरसानेवाले हों, जो अहंपद से मुक्त हों, जिनके व्यवहार में गीता, भागवत, उपनिषदों का ज्ञान छलकता हो, जिन्होंने प्रभुनाम की प्याऊ लगाई हो उन्हें आप गुरु करना। ऐसे जागृत सत्पुरुष की शरण की खोज करना। अगर आप ऐसा कहेंगे कि 'अच्छा गुरु कोई है ही नहीं....

तो गुरु भी कहेंगे कि 'कोई अच्छा शिष्य है ही नहीं।' आप शिष्य की योग्यता प्राप्त करें तो आपको सद्गुरु की योग्यता, महत्ता दिखेगी और समझ में आयेगी।"

अपनी संकीर्ण बुद्धि की तराजू में सद्गुरु को तौलनेवालों के लिए स्वामी शिवानंदजी के उक्त वचन बार-बार पठन-चिन्तन-मनन करने योग्य हैं।

जिनके चरणों में श्री आनंदमयी माँ सत्संग- लाभ प्राप्त करती थीं, वे स्वामी श्री अखण्डानंदजी सरस्वती कहते हैं : "मन को धीरे-धीरे सत्संग के द्वारा भगवान में लगाओ। परंतु बिना सद्गुरु के और सद्गुरु की कृपा के कोई चाहे कि हमारा मन भगवान में लग जाये तो नहीं लग सकता।" ('श्रीसद्गुरु प्रसाद' पृष्ठ ३१) "अभ्यास, वैराग्य, भगवान की कृपा, सद्गुरु का अनुग्रह- इनके द्वारा मन स्थिर होता है। मन केवल बातें करने से स्थिर नहीं होता। सद्गुरु रामदासजी को प्राप्त कर छत्रपति शिवाजी अपनेको शक्तिशाली बना पाये। कबीरजी के गुरुदेव संत रामानंदजी थे। भगवान श्रीरामचंद्रजी के गुरुदेव वशिष्ठजी महाराज थे। भगवान श्रीकृष्ण के गुरुदेव सांदीपनि थे। पूज्य बापू (संत श्री आसारामजी महाराज) के गुरुदेव स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू थे। उनके गुरुदेव स्वामी केशवानंदजी थे। बापूजी कहते हैं कि हमें गुरुदेव नहीं मिलते तो न जाने हम कहाँ होते !

सुरेशानंदजी का जीवन गुरुसान्निध्य के पहले कैसा घिनौना था... वे स्वयं बोलते हैं । महन्त चंदीराम गुरुदर्शन, गुरुसान्निध्य के पहले कैसा घिनौना जीवन जीते थे... वे स्वयं कहते हैं और गुरुप्राप्ति के लाभ का स्मरण करके गद्गद् हो जाते हैं।

ऐसे सुरेशानंद, चंदीराम जैसे एक-दो नहीं, लाखों लोगों का अनुभव है, फिर भी जिन्हें महापुरुषों के प्रति, गुरुओं के प्रति एलर्जी है तो उन्हें मुबारक हो। हिन्दू धर्म के संतों के प्रति किसीको घृणा या द्वेष है तो उनके उस वमन को बुद्धिमान् व्यक्ति देखने-सुनने को तैयार नहीं होते। उनका वमन उन्हींको मुबारक हो। बुद्धिमान् साधक सावधान रहें।

सचमुच सद्गुरु व उनकी करुणा - कृपा के अभाव में साधक बेचारा मन के चंगुल में फँस जाता है। फलतः वह यद्यपि भगवान के मार्ग में लगा दिखता है, पर वास्तव में वह मन के मार्ग में होता है। उसे ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसारामजी बापू की अमृतवाणी की ऑडियो कैसेट 'मन को कैसे वश करें ?' बार-बार सुनना चाहिए।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में भी शिवजी भगवान श्रीरामचंद्रजी के सद्गुरुदेव वशिष्ठजी महाराज से कहते हैं : "हे मुनीश्वर ! जैसे साबुन से धोबी वस्त्र का मैल उतारता है, वैसे ही गुरु और शास्त्र अविद्या को दूर करते हैं।"

संत कबीरदासजी ने भी कहा है :

गुरु धोवी शिष्य कपड़ा, साबुन सर्जनहार । सूरत शिला पर बैठकर, निकसे मैल अपार ॥

जब गुरुरूपी धोवी शिष्यरूपी कपड़े की मैल अविद्या को निकालने के लिए कसौटीरूपी साबुन लगाये और शिष्य साबुन लगते ही घबरा उठे, विद्रोह करे, शास्त्र व सद्गुरु की निंदा करे तो ऐसे शिष्य का कल्याण भला कैसे होगा ? वह जन्म- मरण के चक्र में घटीयंत्र की नाई चलता रहेगा।

नानकदेव का वचन है :

संत का निंदक महा हत्यारा,

संत का निंदक परमेश्वर मारा। संत के निंदक की पूजे न आस,

नानक ! संत का निंदक सदा निराश |

गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं : हरि गुरु निंदा सुनइ जो काना।

होइ पाप गोघात समाना ॥

हर गुर निंदक दादुर होई ।

जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥ (संपादक)

REF: ISSUE87-MARCH-2000