* संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं : बहिरंग और अन्तरंग । बहिरंग रोगों की चिकित्सा तो डॉक्टर लोग करते ही हैं और वे इतने दुःखदायी भी नहीं होते हैं जितने कि अन्तरंग रोग होते हैं।
हमारे अन्तरंग रोग हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह। भागवत में इन एक-एक रोग की निवृत्ति के लिए एक-एक औषधि बतायी है।
ओषति दोषान् धत्ते गुणान् इति औषधिः ।
जो दोष को जला दे और गुणों का आधान कर दे, उसका नाम है औषधि ।
व्यास भगवान ने सभी दोषों की अलग-अलग औषध बतायी, जैसे काम के लिए असंकल्प, क्रोध के लिए निष्कामता, लोभ के लिए अर्थानर्थ का दर्शन, भय के लिए तत्त्वावदर्शन, अहंकार के लिए बड़ों की शरण में रहना आदि। फिर सभी दोषों की एक औषधि बताते हुए कहा कि सभी दोष गुरुभक्ति से दूर हो जाते हैं - एतद् सर्वं गुरोर्भक्त्या ।
यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, 'बेटा! तुम गलत रास्ते से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो, उससे मत चिपको, अपनी सोच-संगति ऊँची रखो,' आदि।
जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायेगा, तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चाहिए, बेईमानी नहीं । बेईमानी सम्पूर्ण दोषों व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु की सेवा करना ।
श्रद्धा पूर्ण नहीं होगी और यदि तुम कहीं भोग करने लगोगे या कहीं यश में, पूजा में, प्रतिष्ठा में फँसने लगोगे और गुरुजी तुम्हें मना करेंगे तो बोलोगे कि, 'गुरुजी हमसे ईर्ष्या करते हैं, हमारी उन्नति इनसे देखी नहीं जाती. इनसे नहीं देखा जाता है कि लोग हमसे प्रेम करें। गुरुजी के मन में अब ईर्ष्या आ गयी और ये अब हमको आगे नहीं बढ़ने देना चाहते हैं।'
साक्षात् भगवान तुम्हारे कल्याण के लिए गुरु के रूप में पधारे हुए हैं और ज्ञान की मशाल जलाकर तुमको दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं, तुम्हारे हाथ में दे रहे हैं। तुम देखते हुए चले जाओ आगे..... आगे.... आगे...। परंतु उनको कोई साधारण मनुष्य समझ लेता है, किसीके मन में ऐसी असद् बुद्धि, ऐसी दुर्बुद्धि आ जाती है तो उसकी सारी पवित्रता गजस्नान के समान हो जाती है। जैसे हाथी सरोवर में स्नान करके बाहर निकले और फिर सूँड से धूल उठा-उठाकर अपने ऊपर डालने लगे तो उसकी स्थिति वापस पहले जैसी ही हो जाती है। वैसे ही, गुरु को साधारण मनुष्य समझनेवाले की स्थिति भी पहले जैसी ही हो जाती है।
ईश्वर सृष्टि बनाता है अच्छी-बुरी दोनों, सुख-दुःख दोनों, चर-अचर दोनों, मृत्यु- अमरता दोनों। परन्तु संत महात्मा, सद्गुरु मृत्यु नहीं बनाते हैं, केवल अमरता बनाते हैं। वे जड़ता नहीं बनाते हैं, केवल चेतनता बनाते हैं। वे दुःख नहीं बनाते, केवल सुख बनाते हैं। तो संत-महात्मा माने केवल अच्छी-अच्छी सृष्टि बनानेवाले, लोगों के जीवन में साधन डालनेवाले, उनको सिद्ध बनानेवाले, उनको परमात्मा से एक करानेवाले।
लोग कहते हैं कि परमात्मा भक्तों पर कृपा करते हैं, तो करते होंगे, पर महात्मा न हो तो कोई भक्त ही नहीं होगा और भक्त ही जब नहीं होगा तो परमात्मा किसी पर कृपा भी कैसे करेंगे ? इसलिए परमात्मा सिद्ध-पदार्थ हैं और महात्मा प्रत्यक्ष हैं।
परमात्मा या तो परोक्ष हैं, सृष्टिकर्ता कारण के रूप में और या तो अपरोक्ष हैं - आत्मा के रूप में। परोक्ष हैं तो उन पर विश्वास करो और अपरोक्ष हैं। तो 'निर्गुणं, निष्क्रियं शान्तं' हैं। परमात्मा का यदि कोई प्रत्यक्ष स्वरूप है तो वह साक्षात् महात्मा ही है । महात्मा ही आपको ज्ञान देते हैं। आचार्यात् विदधति, आचार्यवान पुरुषो वेदा ।
जो लोग आसमान में ढेला फेंककर निशाना लगाना चाहते हैं, उनकी बात दूसरी है। पर, असल बात यह है कि बिना महात्मा के न परमात्मा के स्वरूप का पता चल सकता है, न उसके मार्ग का पता चल सकता है। हम परमात्मा की ओर चल सकते हैं कि नहीं, इसका पता भी महात्मा के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए, भागवत के प्रथम स्कंध में ही भगवान के गुणों से भी अधिक गुण महात्मा में बताये गये हैं, तो वह कोई बड़ी बात नहीं है । ग्यारहवें स्कन्ध में तो भगवान ने यहाँ तक कह दिया है कि :
मद्भक्तपूजाभ्यधिका ।
'मेरी पूजा से भी बड़ी है महात्मा की पूजा।'
REF: ISSUE103-JULY-2001