Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

गुरुपूर्णिमा

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के पूजन का पर्व गुरु की पूजा, गुरु का आदर कोई व्यक्ति की पूजा नहीं है, व्यक्ति का आदर नहीं है लेकिन गुरु की देह के 'व्यास पूनम' पड़ा है। अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रहा परमात्मा है उसका आदर है... ज्ञान का आदर है... ज्ञान का पूजन है... ब्रहाज्ञान का पूजन है....

गुरुपूर्णिमा को व्यासपूर्णिमा भी कहते हैं। इसी दिन भगवान वेदव्यासजी ने विश्व का प्रथम आर्ष बोलते हैं। ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' पूर्ण किया था।

वशिष्ठजी महाराज के पौत्र, पाराशर ऋषि के सपूत वेदव्यासजी जन्म के कुछ समय बाद ही अपनी माँ से कहने लगेः "माँ! अब हम जाते है तपस्या के लिए।" माँ बेटा ! पुत्र तो माता-पिता की सेवा के लिए होता है। माता-पिता के अधूरे कार्य को पूर्ण करने के लिए होता है और तुम अभी से जा रहे हो ?" व्यास : "माँ ! जब तुम याद करोगी और जरूरी काम होगा तब मैं तुम्हारे आगे प्रगट हो जाऊँगा ।"

माँ से आज्ञा लेकर व्यासजी तप के लिए चल दिये । वे बदरिकाश्रम गये। वहाँ एकांत में समाधि लगाकर रहने लगे।

बदरिकाश्रम में बेर पर जीवन यापन करने के कारण उनका एक नाम 'बादरायण' भी पड़ा।

व्यासजी द्वीप में प्रगट हुए इसलिए उनका नाम 'वैपायन' पड़ा। कृष्ण (काले रंग के थे इसलिए 'उन्हें 'कृष्ण द्वैपायन' भी कहते हैं। मानव की बिखरी हुई चेतना को बिखरे हुए जीवन को बिखरे हुए संकल्प-विकल्पों को सुव्यवस्थित करके परमपद तक पहुँचाने की व्यवस्था भी उन्होंने की, इसलिए उन्हें 'व्यास' भी कहते हैं। उन्होंने वेदों का विस्तार किया. इसलिए उनका नाम 'वेदव्यास' भी पड़ा।

ज्ञान के असीम सागर, भक्ति के आचार्य, विद्वत्ता की पराकाष्ठा और अथाह कवित्व शक्ति इनसे बड़ा कोई कवि मिलना मुश्किल है जो जीव कीड़ी से लेकर कुंजर (हाथी) तक एवं मनुष्य से * संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से लेकरयक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं देवता की योनियों में "भटके है और अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाये ऐसे समस्त जीवों के उद्देश्य की पूर्ति का ज्ञान दिलाने की जिन्होंने व्यवस्था की ऐसे भगवान वेदव्यास के नाम से ही 'आषाढ़ी पूनम' का नाम गुरुपूर्णिमा पडा है ।

यह सबसे बड़ी पूनम मानी जाती है क्योंकि बड़े में बड़े उस परमात्मा के ज्ञान, परमात्मा के ध्यान और परमात्मा की प्रीति की तरफ ले जानेवाली है यह पूनम इसको 'गुरुपूनम' भी बोलते हैं ।

जब तक मनुष्य को सत्य के ज्ञान की प्यास रहेगी, आगे बढ़ने की, सात्विक सुख लेने की इच्छा रहेगी तब तक ऐसे व्यास पुरुषों का ब्रह्मज्ञानियों का आदर-पूजन होता रहेगा।

व्यासजी ने वेदों के विभाग किये ताकि साधारण इन्सान भी उसे समझ सके। विश्व का प्रथम आर्य ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' व्यासजी ने बनाया। पाँचवों वेद 'महाभारत' व्यासजी ने ही बनाया। भक्ति ग्रंथ 'भागवत पुराण' भी व्यासजी की रचना है एवं अन्य १७ पुराणों का संकलन भी भगवान वेदव्यासजी ने ही किया है।

व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्व... विश्व में जितने भी धर्म ग्रंथ है, फिर वे चाहे किसी भी मत-मजहब- पंथ के हों, उनमें अगर कोई सात्विक और कल्याणकारी बातें हैं तो सीधे-अनसीधे भगवान वेदव्यासजी के शास्त्रों से ली गयी हैं। व्यासजी ने पूरी मानवजातिको कल्याण का खुला रास्ता बता दिया है। ब्रह्मवेत्ता शिरोमणि भगवान वेदव्यासजी को आज व्यासपूनम के दिन हम फिर फिर से प्रणाम करते हैं वेदव्यासजी की कृपा सभी साधकों के चित्त में चिर स्थायी रहे...

जिन-जिन के अंतःकरण में ऐसे व्यास भगवान का ज्ञान, उनकी अनुभूति और निष्ठा उमरी, ऐसे पुरुष अभी भी आसन पर बैठते हैं तो कहा जाता है कि भागवत कथा में अमुक महाराज व्यासपीठ पर विराजेंगे ।

व्यासजी के शास्त्र श्रवण के बिना भारत तो क्या, विश्व में भी कोई आध्यात्मिक उपदेशक नहीं बन सकता व्यासजी का ऐसा अगाध ज्ञान है। जो व्यासपीठ पर बैठते हैं, ज्ञान देने की, गुरु की जगह पर बैठते हैं, तो उनकी जिम्मेदारी हो जाती है कि भगवान व्यास को जो विचार और सिद्धांत पसंद नहीं हैं, व्यासपीठ से वे न कहें। ऐसे ही पुत्र या सशिष्य की यह जिम्मेदारी होती है कि गुरु के हृदय को जो पसंद न हो ऐसा व्यवहार, आचरण, चिंतन न करे। अगर करेगा तो गुरु जहाँ पहुँचाना चाहते हैं शिष्य वहाँ नहीं पहुँच पायेगा। यहाँ तो गुरुकृपा उसी पर होती है जो शिष्यत्व के गुणों को अपने दिल में सेंभालता है। गुरु को तो अपना दिल देकर रिझाया जाता है। व्यासपूर्णिमा का पर्व वर्षभर की पूर्णिमा मनाने के पुण्य का फल तो देता ही है साथ ही नई दिशा, नया संकेत भी देता है और कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है।

जिन महापुरुषों ने कठोर परिश्रम करके हमारे लिए सब कुछ किया, उन महापुरुषों की कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर, ऋषिऋण चुकाने का अवसर ऋषियों की प्रेरणा और आशीर्वाद पाने का अवसर... यही अवसर है व्यासपूर्णिमा ।

इस व्यासपूर्णिमा के दो उद्देश्य हैं:

(१) वर्ष में कम से कम एक बार ऋषिऋण से हम उऋण हो जायें।

(२) आगे का संदेश, आगे की प्रेरणा, आगे की तपस्या- पुण्याई प्राप्त करके अपने उद्धार का अवसर प्राप्त कर लें।

ऐहिक और स्वर्गीय सफलताओं के लिए तो और भी पर्व है लेकिन ये सफलताएँ जिस चैतन्य की सत्ता से मिलती हैं, उस गुरुतत्त्व की खबर देता है यह पर्व, इसीलिए इसे गुरुपूर्णिमा पर्व कहते हैं।

यह गुरु-परंपरा कबसे मनायी जा रही है ? एक करोड़, २८ लाख वर्ष पूर्व से... ना, ना, उसके भी पहले से यह परंपरा चली आ रही है।

भगवान राम भी गुरुद्वार पर जाते थे। ४३ लाख २० हजार वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी बीतती है (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ) ऐसी ७१ चतुर्युगियाँ बीतती हैं तो एक मन्वंतर बीतता है। अभी सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है। सातवें मन्वन्तर की २४ वीं चतुर्युगी के त्रेता में श्रीराम आये थे और यह २८ वीं चतुर्युगी है। त्रेता चला गया, द्वापर चला गया, अब कलियुग है अर्थात् करीब १ करोड़ ७१ लाख वर्ष पूर्व, (अभी कुछ वर्ष पहले जो रामायण 'सीरियल' बना उसमें देखा होगा अथवा जिन्होंने शास्त्र पढ़े होंगे उन्होंने समझा होगा।) भगवान राम भी गुरुदेव के चरणों में मत्था टेकते थे।

प्रात काल उठि के रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥

सीता-रामजी गुरु के चरण धो रहे हैं और चरणामृत ले रहे हैं... ऐसा मैंने सीरियल में देखा और वह सीरियल शास्त्र के आधार पर बनाया गया है। भगवान राम जैसे किसीके चरण धोते हैं ऐसा कोई डायरेक्टर अपनी ओर से डाले तो लोग उसकी खोपड़ी तोड़ देवें ।

अर्थात् बात यह है, श्रीरामजी गुरुपादसेवा करते थे। रामजी करते थे तबसे यह बात चालू नहीं हुई है, रामजी के पहले उनके पिता, पिता के पिता..... दिलीप राजा, रघु राजा भी गुरुसेवा खोज लेते थे। दिलीप राजा तो गुरु की गायें चराते थे...

गुरु की गायें चराना या उनके शरीर की अनुकूलता करना केवल यही ऐहिक सेवा नहीं है, उनके दैवी कार्य करना भी गुरु की ऐहिक सेवा है और गुरु की आज्ञा के अनुसार अपने मन को ढाल देना यह गुरु की आत्मिक सेवा है।

• यह गुरुपूर्णिमा प्राचीन काल से तमाम देशों में मनायी जाती थी। यह पर्व एटलांटिक सभ्यता में बड़े आदर से मनाया जाता था। दक्षिण अमेरिका, यूरोप, जापान, मिस्र, चीन, तिब्बत आदि जगहों पर भी बड़े आदर से यह पर्व मनाया जाता था ।

गुरुपूनम के दिन भक्त-साधक व्रत रखते हैं जब तक गुरुदेव का प्रसाद, ज्ञान प्रसाद नहीं पाते तब तक बाहर का प्रसाद नहीं लेते।

गुरु ज्ञान का सागर है, जो सत्शिष्य का मुखमंडल देखकर छलकता है, उभरता है। सद्गुरु को जितना दें उतना थोड़ा है और जितना दिया उतना वे बहुत भी मानते हैं। इसमें बाह्य तराजू नहीं होता।

सुकरात का शिष्य कहलाने में प्लेटो अपने को बड़भागी मानते हैं, प्लेटो का शिष्य कहलाने में अरस्तु अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। इमर्सन थोरो का शिष्य कहलाने में अपने को बड़भागी मानते। हैं। मार्क्स का शिष्य कहलाने में लेनिन अपने को बड़भागी मानते हैं, समर्थ रामदास का शिष्य कहलाने में शिवाजी अपने को भाग्यशाली मानते हैं, रामकृष्ण का शिष्य कहलाने में विवेकानंद अपने को बड़भागी मानते हैं और प.पू. लीलाशाह बापू का शिष्य कहलाने में मैं (संत श्री आसारामजी बापू) अपने को भाग्यशाली मानता हूँ ।

गुरु-शिष्य परंपरा, इस प्रकार आगे बढ़ती ही चली जाती है। चाहे कुल परंपरा का ज्ञान हो, चाहे विद्या हो, चाहे सत्शिष्य एवं सद्गुरु का संबंध हो- इन तीन संबंधों से ही संस्कृति का रक्षण होता है। एवं संस्कृति का ज्ञान आगे से आगे एक-दूसरे के हवाले किया जाता है। पिता अपनी कला- कुशलता, अपनी योग्यता एवं संपदा अपने पुत्र को थमाता है, शिक्षक अपने विद्यार्थी को देता है और सद्गुरु अपने सत्शिष्य को सत्य का अनुभव देने के लिए ही सारी चेष्टाएँ करते हैं....

रेडियो से संगीत सुनना एक बात है और संगीतज्ञ होना दूसरी बात है। संगीतज्ञ होना है तो किसी कुशल संगीतज्ञ के साथ स्वर से स्वर, ताल से ताल मिलाकर कुछ समय उसके सान्निध्य में रहकर अभ्यास करना पड़ता है। ऐसे ही हृदय का संगीत सुनना हो, हृदय का प्रकाश पाना हो, हृदयस्थ परमेश्वरीय प्रीति पाना हो तो परमात्मप्रीति से जो छके हैं ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य में बार-बार जायें बार-बार अगर नहीं जा पाते तो गुरुपूनम के अवसर पर तो सबको सुंदर मौका मिल ही जाता है।

उन महापुरुषों के बोलते-चलते, व्यवहार करते, निर्भयता, निःस्पृहता, निरहंकारिता, निःदुखता आदि दिव्य गुण शिष्य की नजरों में आते हैं। धीरे-धीरे शिष्य उनके सद्गुणों को अपने में आत्मसात् कर लेता है। क्षमाशीलता, निर्मलदृष्टि, आत्म-प्रीति, आत्म-मौन, आत्मा में रमण की योग्यता इस प्रकार की महापुरुष की जो सहज स्वाभाविक अवस्था है, साधक उसको देख- सुनकर, संकेत पाकर अपनी अवस्था को भी वैसी बनाकर संसार से पार हो जाता है। फिर दुःखमय संसार में होते हुए भी सत्शिष्य निर्दुःख नारायण में जब चाहे तब गोता मारने में सक्षम बन जाता है। इसीका नाम है सद्गुरु एवं सत्शिष्य का पुनीत संबंध.....

व्यास पूनम मनाने के दो पहलू हैं। एक तो ऐहिक दृष्टि से कि: जिन्होंने दिन-रात एक करके जिस परमात्मा को पाया, परमात्मतत्त्व में जगे, उस परमात्मतत्त्व की समाधि व ज्ञान का आनन्द और माधुर्य छोड़कर जन-जन के लिए न जाने कितने- कितने शास्त्रों की बातें समझाकर, कितने-कितने दृष्टांत आदि देकर हमको इतना उन्नत किया तो हम कृतघ्नता के दोष से दब न मरें, इसलिए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए गुरु के चरणों में रोज नहीं तो इस पर्व के दिन तो महापुरुषों के पास अवश्य जायें।

दरशन कीजे साधु का दिन में कई कई बार।

आसोजा का मेह ज्यों बहुत कर उपकार ।।

कई बार नहिं करि सकै दोय बखत करि लेय।

कबीर साधू दरस ते काल दगा नहिं देय ॥

दोय बखत नहिं करि सकै दिन में करु इक बार ।

कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार ॥

दूजै दिन नहिं करि सकै तीजै दिन करु जाय ।

कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल पाय ।

तीजे चौथे नहिं करे सातें दिन करू जाय ।

या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय ॥

तैं दिन नहिं करि सकै पाख पाख करि लेय ।

कहे कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय ॥

पाख पाख नहिं करि सकै मास मास करु जाय ।

ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय ॥

 

जैसा संग होगा वैसा रंग अंतःकरण को लगेगा अतः बार-बार उन सत्पुरुषों का संग करना चाहिए- ऐसा शास्त्र-वचन है लेकिन बार-बार नहीं कर पाते हैं तो कम-से-कम ऐसे तिथि और त्यौहार को तो उन सत्पुरुषों का सत्संग- सान्निध्य और कृपा-कटाक्ष प्राप्त करके हम असली यात्रा में आगे बढ़े।

दूसरा आंतरिक पहलू यह है कि वर्ष भर में जो साधन-भजन हमने किये, नश्वर आकर्षण से बचकर शाश्वत की प्रीति की यात्रा की, उसमें जो कुछ उपलब्धियाँ हुईं, उससे फिर अब नया पाठ लें... जैसे विद्यार्थी हर साल नयी कक्षा में आगे बढ़ता है ऐसे ही आगे बढ़ने के कुछ संकेत, कुछ शुभ संकल्प, कुछ शुभ भाव, कुछ बढ़िया सामग्री, कुछ बढ़िया साधन मिल जायें। गुरुपूर्णिमा में अन्य पूर्णिमाओं से विशेष पुण्य लाभ तो होता ही है । साथ ही कृतज्ञता व्यक्त करने का और तप, व्रत, साधना में आगे बढ़ने का भी यह त्योहार है।

संयम, सहजता, शांति और माधुर्य तथा जीते जी मधुर जीवन की दिशा बतानेवाली पूनम है गुरुपूनम ! ईश्वरप्राप्ति की सहजसाध्य, साफ- सुथरी दिशा बतानेवाला त्योहार है - गुरुपूनम ।