- स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती
बंगाल में एक बहुत बड़ा मुकदमा चला था । उसमें एक गवाह पेश किया गया था । वह गवाही दे रहा था : ‘‘हाँ साहब ! उन्होंने हमारे सामने ऐसा किया । बम बनाने की सामग्री ले आये हमारे सामने । हमने उनको बम ले जाते देखा, हम साथ ही थे ।’’
फिर उसने कहा : ‘‘हमने इनको बम फेंकते देखा ।’’ न्यायाधीश एकदम आश्चर्यचकित ! बिल्कुल चश्मदीद गवाह ! आँखों-देखी घटना का वर्णन कर रहा है । गवाह ने आगे कहा : ‘‘जज साहब ! इसने बड़े जोर से बम फेंका और धड़ाका हुआ तो हमारी नींद टूट गयी ।’’
जज : ‘‘तो क्या यह सपना था ?’’
गवाह : ‘‘हाँ साहब ! यह सपना था ।’’
अब बताओ ! वर्णन करने में क्या फर्क हुआ ? सचमुच बंगाल में ऐसा मुकदमा चला था । अंग्रजों के जमाने में किसी क्रांतिकारी को पकड़ के उन लोगों ने मुकदमा चलाया था । उन्होंने 500 रुपये में झूठा गवाह तय किया था । सामनेवालों को जब पता चला तो उन्होंने एक हजार रुपये का संकेत किया । इस पर उसने गवाही चौपट कर दी ।
घटना चाहे सिनेमा की हो या कल्पना की हो, उसका जब वर्णन किया जाता है, तब ऐसे ही किया जाता है, जैसे सच हो । वह तो अंत में देखना पड़ता है कि यहाँ वर्णन करनेवाले का अभिप्राय क्या है ?
इसी प्रकार जो सृष्टि का वर्णन है, उसमें यथार्थ वस्तु से सृष्टि हुई हो तो और मायिक वस्तु से सृष्टि हुई हो तो, जब इसके क्रम का वर्णन करेंगे, तब बिल्कुल एक ही ढंग से किया जायेगा । अंत में कह दिया कि ‘यह सब सपना है ।’ तो सब वर्णन नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा कि नहीं हो जायेगा ?
बोले : तो वेद-शास्त्र-पुराण में जो सृष्टि का वर्णन है, उसमें वेद वर्णन करते-करते अंत में कह देते हैं ‘ना-ना’ तो कुछ है ही नहीं ।
नेह नानेति चाम्नायात । (माण्डूक्यकारिका : 24)
और वे कह देते हैं कि इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते । (वृहद. : 2.5.19)
माया के रूप हैं, तो यह गंधर्वनगर है, यह तो स्वप्नवत् है, यह तो मानसी रचना है । ठसाठस-ठोस अधिष्ठान में यह तो कल्पना है । इस तरह का वर्णन मिलता है Ÿकि वर्णन पढ़ते-पढ़ते, कहानी पढ़ते-पढ़ते तन्मय हो जाते हैं, कभी-कभी नाटक देखते-देखते मनुष्य तन्मय हो जाते हैं लेकिन वास्तव में देखो तो ठोस कुछ भी नहीं ।
REF: ISSUE252-DECEMBER-2013