Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

परम कल्याण करनेवाला ग्रंथ : श्रीमद्भगवद्गीता

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

 (गीता जयंती : 3 दिसम्बर)

समुद्र में से राई का दाना निकालना सम्भव है ? कठिन है । लेकिन महापुरुषों ने क्या कर दिया कि इतने बड़े साहित्यरूपी समुद्र में से गीतारूपी राई का दाना निकालकर रख दिया और उस राई के दाने में भी सारे जगत को ज्ञान देने की ताकत ! 700 श्लोकों का छोटा-सा ग्रंथ । 18 अध्याय, 9411 पद और 24,447 शब्द गीता में हैं । गीता एक ऐसा सद्ग्रंथ है जो प्राणिमात्र का उद्धार करने का सामर्थ्य रखता है । गीता के एकाध श्लोक के पाठ से, भगवन्नाम-कीर्तन से और आत्मतत्त्व में विश्रांति पाये साधु-पुरुष के दर्शनमात्र से करोड़ों तीर्थ करने का फल माना गया है ।

गीतायाः श्लोकपाठेन गोविन्दस्मृतिकीर्तनात् ।

साधुदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलं लभेत् ।।

गीता भगवान के श्रीमुख से निकला अमृत है । गीता का एक-एक श्लोक तो क्या एक-एक शब्द मंत्र है - मन तर जाय ऐसा है और नित्य नवीन भाव, नित्य नवीन रस प्रकट कराता है ।

गीता के विषय में संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं : ‘‘विरागी जिसकी इच्छा करते हैं, संत जिसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और पूर्ण ब्रह्मज्ञानी जिसमें अहमेव ब्रह्मास्मिकी भावना रखकर रमण करते हैं, भक्त जिसका श्रवण करते हैं, जिसकी त्रिभुवन में सबसे पहले वंदना होती है, उसे लोग भगवद्गीताकहते हैं ।’’

ख्वाजाजी ने कहा है : ‘‘यह उरफानी मजमून (ब्रह्मज्ञान के विचार) संस्कृत के 700 श्लोकों में बयान किया गया है । हर श्लोक एक रंगीन फूल है । इन्हीं 700 फूलों की माला का नाम गीता है । यह माला करोड़ों इंसानों के हाथों में पहुँच चुकी है लेकिन ताहाल इसकी ताजगी, इसकी खुशबू में कोई फर्क नहीं आया ।’’

गीता ऐसा अद्भुत ग्रंथ है कि थके, हारे, गिरे हुए को उठाता है, बिछड़े को मिलाता है, भयभीत को निर्भय, निर्भय को निःशंक, निःशंक को निर्द्वन्द्व बनाकर नारायण से मिला के जीते-जी मुक्ति का साक्षात्कार कराता है ।

भगवान श्रीकृष्ण जिसके साथ हैं ऐसा अर्जुन सामाजिक कल्पनाओं से, सामाजिक कल्पित आवश्यकताओं से, ‘मैं-मैं, तू-तूके तड़ाकों-धड़ाकों से इतना तो असमंजस में पड़ा कि मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए ?...’ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । भगवान ने विराट रूप का दर्शन कराया तो अर्जुन भयभीत हो गया । भगवान ने सांख्य योग का उपदेश किया तो अर्जुन ने शंका की :

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव । (गीता : 3.1)

आप तो कहते हैं कि संन्यास ऊँची चीज है, संसार स्वप्न है, मोहजाल है । इससे जगकर अपने आत्मा को जान के मुक्त होना चाहिए फिर आप मेरे को घोर कर्म में क्यों धकेलते हो ?

संन्यास अर्थात् सारी इच्छाओं का त्याग करके आत्मा में आना तो ऊँचा है लेकिन इस समय युद्ध करना तेरा कर्तव्य है । सुख लेने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था भंग करनेवाले आतताइयों ने जब समाज को घेर लिया है, निचोड़ डाला है तो वीर का, बहादुर का कर्तव्य होता है कि बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय अपनी योग्यताओं का इस्तेमाल करे, यही उसके लिए इस समय उचित है । अपना पेट भरने के लिए तो पशु भी हाथ-पैर हिला देता है । अपने बच्चों की चोंच में तो पक्षी भी भोजन धर देता है लेकिन श्रेष्ठ मानव वह है जो सृष्टि के बाग को सँवारने के लिए, बहुतों के हित के लिए, बहुतों की उन्नति के लिए तथा बहुतों में छुपा हुआ जो एक ईश्वर है उसकी प्रसन्नता के लिए कर्म करे और फल उसीके चरणों में अर्पण कर दे जिसकी सत्ता से उसमें कर्म करने की योग्यता आयी है ।

गीता एक दिन में पढ़कर रख देने की पुस्तक नहीं है । गीता पढ़ो गीतापति से मिलने के लिए और गीतापति तुम्हारे से 1 इंच भी दूर नहीं जा सकता ।

Ref: ISSUE287-November-2016