Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

परम सुख का नाम है आत्मसाक्षात्कार

(पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 59वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस: 27 सितम्बर)

सबकी माँग का नाम है आत्मसाक्षात्कार

कितना भी धन मिल जाय, सत्ता मिल जाय, कितनी भी अप्सराएँ मिल जायें अथवा कुछ भी मिल जाय तो भी सच्चे सुख की प्यास दब सकती है, बुझ नहीं सकती । कितना भी बाहर का सुख आ जाय लेकिन आत्मसाक्षात्कार के सुख की प्यास सभीके अंदर छुपी है । आपको कितना भी धन मिल जाय, कितना भी अनुकूल पति या पत्नी मिल जाय, कितना भी यश मिल जाय फिर भी आप और सुखी होने की कोशिश करोगे । तो जो परम सुख है उसका नाम है आत्मसाक्षात्कार ! परम सुख, परम ज्ञान, परम सामर्थ्य का अनुभव, परब्रह्म-परमात्मा और अपने आत्मा के मिलन के दिवस का नाम है आत्मसाक्षात्कार दिवस Ÿ। कैसा होता है बताया नहीं जाता (वर्णन में नहीं आता) ।

रामकृष्ण परमहंस को तोतापुरी गुरु की कृपा से आत्मसाक्षात्कार हुआ तो 3 दिन तक उसमें खोये रहे, हमारे को हुआ तो ढाई दिन उसमें...  3 मिनट भी उसमें स्थिति हो जाय तो फिर गर्भवास नहीं होता, जन्म-मरण नहीं होता । आपने 3 सेकंड तक सूरज को देखा और हमने 30 सेकंड तक सूरज को देखा, उसके विषय में सोचा लेकिन जो सूरज 3 सेकंड में दिख गया वही 30 सेकंडवाला है । सूरज को देखना तो आँखों के लिए हानिकारक है लेकिन सूरज में भी जिसकी चमक है, चंदा में जिसकी चाँदनी है और पृथ्वी में जिसकी गंध है, जल में जिसका रस है उस परब्रह्म-परमात्मा से हाथ मिलाकर कृतकृत्य होने का नाम है आत्मसाक्षात्कार !

सतयुग में ऐसे आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों का खूब-खूब प्राकट्य होता था । श्रीमद्भागवतमें आता है कि सतयुग के अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्मरामी होते थे एवं बाकी लोग स्वरूप-स्थिति के लिए अभ्यास में तत्पर रहते थे ।

इसलिए उस समय मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों की आवश्यकता नहीं थी । सतयुग में सात्त्विक बुद्धि थी, सात्त्विक व धर्म का आचरण था, लोग सत्य ही बोलते थे और ब्रह्मज्ञानी गुरुओं को पहचानते थे, ब्रह्मज्ञानी का उपदेश उनको पच जाता था ।

युग बदले, सत्त्वगुण में रजोगुण बढ़ा, फिर युग बदला तो तमस का अंश बढ़ा । कई लोग ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी होने की घोषणा कर देते थे और कई लोग ब्रह्मज्ञानियों को अपनी मति-गति के अनुसार तौलते, फिर उनकी खोपड़ीरूपी तगड़ी (तराजू) डोलने लग जाती । तो सयाने ब्रह्मवेत्ताओं ने निर्णय किया कि अब रजो-तमोगुण से लोगों की मति-गति देह में आ गयी और बाहर के जगत में ब्रह्मज्ञानी को तत्त्वरूप से पहचानने की मति अब न रही । उस मति के न होने का प्रमाण भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन देता है :

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थरूप से जानता है ।’ (गीता : 7.3)

धार्मिक तो सब हो जाते हैं लेकिन आत्मशुद्धि, हृदय की शुद्धि, सत्त्व की पूँजी के लिए कोई विरले ही चलते हैं, उनमें से कोई-कोई विरला पहुँचता है और उन पहुँचे हुओं में से मुझ चैतन्य आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कोई विरला ही कर पाता है । रामजी के दर्शन तो हो जाते हैं लेकिन राम-तत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए हनुमानजी अपने पास अष्टसिद्धि, नवनिधि होते हुए भी वर्षों तक रामजी की सेवा करते हैं और रामजी जब अयोध्या में अति प्रसन्न होते हैं एवं तत्त्वज्ञान का उपदेश देते हैं तब हनुमानजी को आत्मतृप्ति का अनुभव, आत्मसाक्षात्कार होता है ।

वैदिक संस्कृति में जीते-जी परमात्मा के साक्षात्कार का जो प्रसाद मिलता है, वह और किसी मजहब में नहीं मिलता । उन मजहबों में से किसीने हिम्मत की और वैदिक संस्कृति का प्रसाद पाया तो सूफीवाद चला, मंसूर को आत्मसाक्षात्कार हुआ था लेकिन विरोधियों ने खूब विरोध किया । सुकरात को साक्षात्कार हुआ था तो विरोधियों ने उन्हें जहर का प्याला पिलाया लेकिन भारत में आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों को पहचाननेवाला हृदय, पहचाननेवाली मति और गति अभी भी काफी अंश में है ।

ब्रहम गिआनी का दरसु बडभागी पाईऐ ।

ब्रहम गिआनी कउ बलि बलि जाईऐ ।

ब्रहम गिआनी की मिति कउनु बखानै ।

ब्रहम गिआनी की गति ब्रहम गिआनी जानै ।

अर्जुन की बराबरी उस जमाने का कौन कर सकता है ? स्वर्ग जाना, दिव्यास्त्र लाना, रूप-लावण्य की अम्बार अप्सरा भोग-विलास के लिए आमंत्रित करे फिर भी अपने संयम का परिचय देना, उर्वशी जैसी अप्सरा के रूप-लावण्य को ठुकराकर लँगोटी के पक्के होने का सात्त्विक परिचय देनेवाले अर्जुन को शाप मिलता है कि ‘‘मेरे से भोग नहीं करेगा तो तू नपुंसक रहेगा सालभर !’’ फिर भी अर्जुन बोलता है, ‘‘कोई बात नहीं ।’’ - ऐसा संयममूर्ति अर्जुन, जिसका रथ श्रीकृष्ण हाँकते हैं, उस अर्जुन को भी तत्त्व के साक्षात्कार के बिना विषाद का दुःख सहना पड़ता है । विराट रूप का दर्शन करने के बाद भी अर्जुन को भय का एहसास होता है । जब श्रीकृष्ण एकदम छलकते हैं और अर्जुन पूरा हृदय खुला रखता है, तब अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार होता है और अर्जुन कहता है : नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा...

यह कितना ऊँचा दिवस है ! यह कितनी ऊँची अनुभूति है ! भगवान जिसका रथ हाँक रहे हैं उसके भी दुःखों का अंत तत्त्व-साक्षात्कार के बिना नहीं हुआ । भगवान का दर्शन करते हैं फिर भी उनका अज्ञान नहीं मिटा ।

एक बार श्रीकृष्ण के चरणों में उद्धव ने ऐसा सवाल रख दिया : ‘‘प्रभु ! धरती पर बड़े-में-बड़ा काम क्या है ? जैसे मैं श्रीकृष्ण का दर्शन कर रहा हूँ, हनुमानजी ने रामजी का दर्शन किया... यह तो बड़ा काम है । लेकिन क्या इससे भी कोई बड़ा काम है ? ऊँची-में-ऊँची चीज क्या है ?’’

भागवत के 11वें स्कंध में श्रीकृष्ण ने कहा है : शरीर को मैंमानना, संसार को सच्चा मानना - यह अज्ञानियों का स्वभाव है । आत्मा को मैंजानना और परमात्मा को मैं-मेरेमें एकाकार देखना - यह ज्ञानी का स्वभाव है । स्वभावविजयः शौर्यम् ।शरीर में होते हुए भी अपने आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना यह बड़े-में-बड़ी बहादुरी है, सबसे बड़ा शौर्य है ।

तो जो श्रीकृष्ण में चमचम चमकता है, भगवान शिव में समाधि-सुख देता है, जगदम्बा में, आदिशक्ति में उभरता है, वही भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू में ज्ञान देता है और आशाराम में छुपा हुआ जागृत होता है । इस घटना का नाम है आत्मसाक्षात्कार ।

मैं मेरे गुरुदेव की ओर से भी बधाई देता हूँ कि गुरुदेव का मनोरथ सफल हुआ कि अपना अनुभव झेलनेवाला कोई पात्र मिल जाय...गुरु की कृपा से, आप लोगों के शुभ पुण्यों से वह पुनीत दिवस आया था -

आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस 

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस ।।

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार 

हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार ।। 

 

REF: RP-ISSUE285 –SEPTEMBER-2016