- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
(रक्षाबंधन : 11 अगस्त)
रक्षाबंधन पर बहन भाई को सूत्र का धागा बाँधती है । सगे भाई-बहन हों अथवा चित्त में जिसके प्रति भाई या बहन का भाव जग जाय वे यह पर्व मनाते हैं । यदि चित्त की शुद्ध व उम्दा भावनाएँ नहीं हैं तो राखी एक धागामात्र रह जाती है । यदि उम्दा, पवित्र, दृढ़ व सुंदर भावना है तो पतला-सा धागा बड़े चमत्कार सर्जित कर देता है ।
ऋषियों ने कितना गहरा अध्ययन किया होगा ! जीवन की मूल्यवान घड़ियों को, ऊर्जा को, दृष्टि को नीचे के केन्द्रों में गिरने से बचाने के लिए रक्षाबंधन का उत्सव बड़ी मदद करता है ।
बहन निरपेक्ष भाव से भाई के हाथ पर वह सूत्र का धागा बाँधे, भावना करे कि ‘मेरा भाई ओजस्वी, यशस्वी, तपस्वी हो, जीवन्मुक्त हो, आप तरे और दूसरों को तारनेवाला हो ।’ ऐसी भावना करके यदि बहन राखी बाँधती है तो सचमुच वह बहन नहीं, साक्षात् लक्ष्मी है ।
मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसीके लिए आप जैसे विचार करते हैं वैसे सामनेवाले के अंदर भी आंदोलन पैदा होते हैं । बहन यदि भाई के लिए शुभकामनाएँ करती है तो भाई के चित्त में भी प्रसन्नता, उदारता, सहानुभूति और सत्कामनाओं की प्रतिक्रिया होती है ।
और कुछ बाँधते तो हो सकता है कि वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय लेकिन यह धागा टुकड़े-टुकड़े नहीं होता । धागा दिखता पतला है परंतु इसमें बड़ी मजबूती छुपी है ।
बहन का बहनत्व तब तक है जब तक ‘भाई का कल्याण हो, ओज, बल, तेज, ज्ञान बढ़ता रहे’ - इस कामना से भाई को राखी बाँधती है । और भाई तभी भाई है जब वह ‘बहन के जीवन की, शील व चरित्र की तथा बहन के दुःख में दौड़ जाने की जवाबदारी मेरी है’ - ऐसा माने । इस जवाबदारी को याद दिलाने का दिन रक्षाबंधन है ।
मैं तो चाहूँगा कि बहन केवल भाई से बाह्य रक्षा के लिए ही उसे राखी न बाँधे और भाई बहन की बाह्य सुविधाओं का ही खयाल न करे बल्कि बहन गार्गी जैसी हो जाय, भाई जनक जैसा हो जाय । बहन तत्त्वज्ञान को उपलब्ध हो, सुख-दुःख में सम रहे, लाभ-हानि व जीवन-मृत्यु को खेल समझकर जीवन और मृत्यु के पार जो परमात्मा है उसमें जग जाय, ऐसा बहन को ज्ञान दिलाने में भाई यदि मदद दे तो सचमुच वह भाई भगवान का ही रूप है । और बहन भी ऐसी भावना करे कि ‘मेरा भाई व्यवहार में कुशल रहे...’ व्यवहार में कुशल का अर्थ है कि व्यवहार तो करो लेकिन उसमें कर्तापन न भासे । तुम खाओ तो सही पर ‘मैं खा रहा हूँ ।’ ऐसा न भासे । तुम चलो तो सही किंतु यह न हो कि ‘मैं चल रहा हूँ ।’ शरीर चल रहा है, मुँह खा रहा है... तुम लो-दो तो सही परंतु तुमको पता चले कि ‘लेने-देने की क्रिया हाथों से होती है । हाथ शरीर से जुड़े हैं, शरीर मन से जुड़ा है । यह सब मनोमात्र व्यवहार है । मैं इन सबको देखनेवाला असंग द्रष्टा हूँ ।’ यदि ऐसी दृष्टि तुम्हारी बनी है और ऐसी दृष्टि यदि तुम एक-दूसरे के लिए चाहते हो तो तुम केवल भाई-बहन नहीं हो, गुरुभाई-गुरुबहन भी हो और गुरु-तत्त्व को पाने के अधिकारी भी हो जाते हो ।
REF: ISSUE331-RP-AUGUST-2020