प्रश्नकर्त्री : बापूजी ! मुझे अक्सर बहुत भय लगता है, पता नहीं क्यों ?
पूज्य बापूजी : पता नहीं कि क्यों तुमको भय लगता है ? वास्तव में भय तुमको कभी लगा ही नहीं है । जब भी भय लगता है तो मन को ही लगता है, भय तुमको छू भी नहीं सकता । अब तुम मन के साथ जुड़ जाने की गलती छोड़ दो, भय लगे तो लगे । कुत्ते की पूँछ को भय लगा, दब गयी तो तेरे बाप का क्या जाता है ! जब भी भय लगे तो सोच कि ‘कुत्ते को भय लगा और पूँछ दब गयी तो मेरा क्या ?’ घर में कुत्ता आया फिर अपनी पत्नी, बहू-बेटों को भी लाया तो घर का मालिक हो गया क्या ? ऐसे ही भय आया मन में तो तेरा मालिक हो गया क्या ? आता है - जाता है । ‘भय क्यों लगता है, कैसे लगता है ?’ मरने दे इसको, महत्त्व ही मत दे । भय को तू तो जानती है न ! तो चिंतन कर कि ‘भय को जाननेवाली मैं निर्भय हूँ । भय मन को लगता है, चिंता चित्त को लगती है, बीमारी शरीर को लगती है, दुःख मन को होता है... हम हैं अपने-आप, हर परिस्थिति के बाप ! हम प्रभु के, प्रभु हमारे, ॐ... ॐ... ॐ... ॐ... आनंद, ॐ माधुर्य ॐ ।’ जब भी भय लगे बस ऐसा ॐ... ॐ... ॐ... हा हा हा (हास्य-प्रयोग करना)... फिर ढूँढ़ना - ‘कहाँ है भय ? कहाँ तू लगा है देखें बेटा ! कहाँ रहता है बबलू ! कहाँ है तू भय ?’ तो भय भाग जायेगा । भय को भगाने की चिंता मत कर, प्रभु के रस में रसवान हो जा ।
साधिका : बापूजी ! मेरी साधना में कुछ समय से बहुत गिरावट आ रही है, मन-बुद्धि संसार में बहुत विचलित होते हैं तो क्या करूँ जिससे साधना में उन्नति हो ?
पूज्यश्री : संत कबीरजी बोलते हैं :
‘‘चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।
दिन-रात, सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता, उतार-चढ़ाव देखकर मैं रो पड़ा फिर गुरु के ज्ञान से प्रकाश हुआ :
चक्की चले तो चालन दे, तू काहे को रोय ।
लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।’’
यह गिरावट, उत्थान-पतन आता-जाता है फिर भी जो आता-जाता नहीं है, ॐऽऽऽ... ॐकार के उच्चारण में प्रथम अक्षर ‘अ’ और आखिरी अक्षर ‘म’ के बीच निःसंकल्प अवस्था है,* उसमें टिकने का प्रीतिपूर्वक प्रयत्न करो, सब मंगलमय हो जायेगा ।
REF: ISSUE343-JULY-2021